SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 857
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .. .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-...................... उसने लोगों में ऐसी बात फैलाई कि वसुदेव ने अग्निप्रवेश करके आत्महत्या कर ली। बाद में वह कई देशों में भ्रमण करके और मानव-कन्याएँ एवं विद्याधर-कन्याएँ प्राप्त करके एक सौ वर्ष के बाद अरिष्टपुर की राजकुमारी रोहिणी के स्वयंवर में आ पहुँचा । रोहिणी ने उसका वरण किया। वहाँ आए समुद्र विजय आदि बन्धुओं के साथ उसका पुनर्मिलन हुआ। वसुदेव को रोहिणी से राम नामक पुत्र हुआ । कुछ समय के बाद वह शौर्यपुर में वापिस आ गया और वहीं धनुर्वेद का आचार्य बनकर रहा । मगधराज जरासन्ध ने घोषणा कर दी कि जो सिंहपुर के राजा सिंहरथ को जीवित पकड कर उसे सौंपेगा उसको अपनी कुमारी जीवयशा एवं मनपसन्द एक नगर दिया जाएगा। बसूदेव ने यह कार्य उठा लिया । संग्राम में सिहरथ को वसुदेव के कंस नामक एक प्रिय शिष्य ने पकड़ लिया । अपनी प्रतिज्ञा के अनसार जीवयशा देने के पहले जरासन्ध ने जब अज्ञातकुल कंस के कुल की जाँच की तब ज्ञात हुआ कि वह उग्रसेन का ही पुत्र था। जब वह गर्भ में था तब उसकी जननी को पतिमांस खाने का दोहद हुआ था। पुत्र पितृघातक होगा इस भय से जननी ने जन्मते ही पुत्र को एक कांसे की पेटी में रखकर यमुना में बहा दिया था। एक कलालिन ने पेटी में से बालक को निकालकर अपने पास रख लिया था। कंस नामक यह बालक जब बड़ा हुआ तब उसकी उग्र कलहप्रियता के कारण कलालिन ने उसको घर से निकाल दिया था। तब से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करता हुआ वसुदेव के पास ही रहता था और उसका बहुत प्रीतिपात्र बन गया था। इसी समय कंस ने भी पहली बार अपना सही वृत्तान्त जाना तो उसने पिता से अपने वैर का बदला लेने के लिए जरासन्ध से मथुरा नगर मांग लिया । वहाँ जाकर उसने अपने पिता उग्रसेन को परास्त किया और उसको बंदी बनाकर दुर्ग के द्वार के समीप रख दिया । कंस ने वसुदेव को मथुरा बुला लिया और गुरुदक्षिणा के रूप में अपनी बहन देवकी उसको दी। देवकी के विवाहोत्सव में जीवयशा ने अतिमुक्त मुनि का अपराध किया। फलस्वरूप मुनि ने भविष्यकथन के रूप में कहा कि जिसके विवाह में मस्त होकर नाच रही है । उसके पुत्र से ही तेरे पति का एवं पिता का विनाश होगा। भयभीत जीवयशा से यह बात जानकर कंस ने वसुदेव को इस वचन से प्रतिबद्ध कर दिया कि प्रत्येक प्रसति के पर्व देवकी को जाकर कंस के आवास में ठहरना होगा। बाद में कंस का मलिन आशय ज्ञात होने पर वसूदेव ने जाकर अतिमुक्तक मुनि से जान लिया कि प्रथम छह पुत्र चरमशरीरी होंगे इसलिए उनकी अपमृत्यु नहीं होगी और सातवाँ पुत्र वासुदेव बनेगा और वह कंस का घातक होगा। इसके बाद देवकी ने तीन बार युगलपुत्रों को जन्म दिया। प्रत्येक बार इन्द्राज्ञा से नैमग देव ने उनको उठाकर भद्रिलनगर के सुदृष्टि श्रेष्ठी की पत्नी अलका के पास रख दिया और अलका के मृतपुत्रों को देवकी के पास रख दिया । इस बात से अज्ञात प्रत्येक बार कंस इन मृतपुत्रों को पछाड कर समझता था कि मैंने देवकी के पुत्रों को मार डाला। देवकी के सातवें पुत्र कृष्ण का जन्म सात मास के गर्भवास के बाद भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को रात्रि के समय हआ। बलराम नवजात शिशु को उठाकर घर से बाहर निकल गया । घनघोर वर्षा से उसकी रक्षा करने के लिए वसुदेव उस पर छत्र धर कर चलता था ।५ नगर के द्वार कृष्ण के चरण-स्पर्श से खुल गए। उसी समय कृष्ण को १. दीक्षा लेने के पूर्व अतिमुक्तक कंस का छोटा भाई था । हपु० के अनुसार जीवयशा ने हँसते-हँसते अतिमुक्त मुनि के सामने देवकी का रजोमलिन बस्त्र प्रदर्शित करके उनकी आशातना की। त्रिषग्टि० के अनुसार मदिरा के प्रभाववश जीवयशा ने अतिमुक्त मुनि को गले लगकर अपने साथ नृत्य करने को निमन्त्रित किया। २. त्रिषष्टि के अनुसार जन्मते ही शिशु अपने को सौंप देने का वचन कंस ने वसुदेव से लिया। ३. त्रिषष्टि० में सेठ-सेठानी के नाम नाग और सुलसा हैं। ४. त्रिषष्टि के अनुसार कृष्णजन्म की तिथि और समय भाद्रपद कृष्णाष्टमी और मध्यरात्रि है। ५. त्रिषष्टि० के अनुसार देवकी के परामर्श से वसुदेव कृष्ण को गोकुल ले चला । इसमें कृष्ण पर छत्र धरने का कार्य उनके रक्षक देवता करते हैं। त्रिषष्टि के अनुसार देवता आठ दीपिकाओं से मार्ग को प्रकाशित करते थे और उन्हीं ने श्वेत वृषभ का रूप धर कर नगरद्वार खोल दिए थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy