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________________ Jain Education International ४७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड (र) दैत्य ध्वनियाँ मूर्द्धन्य हो गयी है जैसे स्थित = ठिप, कृत्वा = कट्टु (ल) अर्द्धमागधी में ऐसे शब्द प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जिनका प्राय: महाराष्ट्री में अभाव है जैसे अणुवीति, आघवेत, आवकम्म, कण्हुइ, पोरेवच्च वक्क, विउस इत्यादि । ५. जैन महाराष्ट्री अर्द्धमागधी के आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त चारित्र कथा, दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल आदि विषयक प्राकृत का विशाल साहित्य है । इस साहित्य की भाषा को वैयाकरणों ने जैन महाराष्ट्री नाम दिया है, इसमें महाराष्ट्री के बहुत लक्षण पाये जाते हैं, फिर भी अर्द्धमागधी का बहुत कुछ प्रभाव देखा जाता है। जैन महाराष्ट्री के कतिपय ग्रन्थ प्राचीन है। यह द्वितीय स्तर के प्रथम युग के प्राकृतों में स्थान पा सकती है। पन्ना ग्रन्थ, नियुक्तियाँ, पउमचरिउ, उपदेशमाला ग्रन्थ प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के उदाहरण हैं । आगम ग्रन्थों पर रचे गये बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारसूत्रभाष्य, विशेषावश्यक भाष्य एवं निशींथ चूर्णी में इस भाषा का प्रयोग हुआ है, समराइच्चकहा, कुवलयमाला वसुदेव हिण्डी, पउमचरिउ में भी इसी भाषा का प्रयोग है । लक्षण - अर्द्धमागधी के अनेक लक्षण इसमें पाये जाते है (१) क के स्थान पर अनेक स्थान पर ग होता है । (२) लुप्त व्यंजनों के स्थान पर यू होता है । (३) शब्दों के आदि व मध्य में ण की जगह न अर्द्धमागधी की तरह होता है । (४) अस धातु का सभी काल, वचन न पुरुषों में अर्धमागधी के समान आसी रूप पाया जाता है । शेष नियम महाराष्ट्री प्राकृत के समान ही जैन महाराष्ट्री में लागू होते हैं। (६) शिलालेखी प्राकृत शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप अशोक के शिलालेखों में संरक्षित है। इन शिलालेखों की दो लिपियाँ है— ब्राह्मी व खरोष्ठी । अशोक के शिलालेखों की संख्या लगभग ३० है । अशोक ने अपने लेख शिलाओं पर लिखवाये जो उस समय की प्रादेशिक भाषाओं में रचित हैं, इनको ३ भागों में बांट सकते हैं (अ) पंजाब के शिलालेख - इसमें र का लोप नहीं देखा जाता । (ब) पूर्व भारत के लेख - इनमें मागधी के सदृश र की जगह सर्वत्र ल होता है । (स) पश्चिम भारत के शिलालेख – ये उज्जैन की उस भाषा से सम्बन्धित हैं जिनका मेल पालि भाषा से है । इनका समय ख्रिस्तपूर्व २५० वर्ष का है । (७) शौरसेनी प्राकृत भारतीय आर्य भाषा से मध्य युग में जो नाना प्रादेशिक भाषाएं विकसित हुईं, उनका सामान्य नाम प्राकृत है। विद्वानों ने देश-भेद के कारण मागधी व शौरसेनी को ही प्राचीन माना है। अशोक के शिलालेखों में दोनों ही प्राकृतों के उल्लेख है। इस प्रकार ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में शौरसेनी के वर्तमान रहने के शिलालेखी प्रमाण उपलब्ध हैं। शौरसेनी शूरसेन ( ब्रजमण्डल - मथुरा) के आसपास की बोली थी और इसका विकास वहाँ की स्थानीय बोली से हुआ । मध्य देश संस्कृत का केन्द्र होने के कारण शौरसेनी उससे बहुत प्रभावित है, मौर्य काल में जैन संघ के प्रवास के कारण इसका प्रचार दक्षिणी भारत में भी हुआ । शौरसेनी के विषय में विद्वानों की मान्यताएँ इस प्रकार हैं : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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