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________________ •••• प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण (ब) संस्कृत व प्राकृत के बीच किसी प्रकार का उत्कृष्ट व जघन्य भाव नहीं है। दोनों की उत्पत्ति छान्दस हुई। (स) उच्चारण भेद से इनमें हल्का अन्तर आ जाता है परन्तु इतना भी अन्तर नहीं कि दोनों विपरीत लगने लगे । प्राकृत के भेद ४७३ १. पालि हीनयान बौद्धों के 'धर्म प्रन्थों की भाषा को पालि कहते हैं। यह भी एक तरह की प्राकृत है। पालि शब्द के विषय में कई विद्वानों का मत है कि पालि शब्द 'पंक्ति' से बना है जिसका अर्थ है श्रेणी, परन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार पालि शब्द पल्लि से बना है और पल्लि एक प्राकृत शब्द है। इसका उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थ विपाक सूत्र भी आया है जिसका अर्थ होता है ग्राम या गाँव । अतः पालि शब्द का अर्थ ग्राम में बोली जाने वाली भाषा से होता है । यही कारण कि प्रसिद्ध विचारक मनीषी गायगर ने इसे आर्ष प्राकृत कहा है। में पालि शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। इसका प्राचीनतम प्रयोग चौथी शताब्दी में लिखित ग्रन्थ दीपवंश लंका में हुआ था। वहाँ इसका अर्थ बुद्ध वचन है । बौद्ध लोग इसे मागधी कहते हैं, अतः इसका उत्पत्ति स्थल मगध है, परन्तु इसका मागधी से कोई सम्बन्ध नहीं है। डॉ० कोनो इसे पैशाची के सदृश्य मानते हैं । उनके मत में पैशाची का उत्पत्ति स्थल विध्याचल का दक्षिण प्रदेश है। परन्तु पालि भाषा अशोक के गुजरात प्रदेश स्थित गिरनार के शिलालेख के अनुरूप होने से कारण यह मगध में ही नहीं अपितु भारतवर्ष के पश्चिमी प्रान्त में उत्पन्न हुई व वहाँ से सिंहस प्रदेश में लायी गयी होगी और यही तर्क विशेष युक्तिसंगत प्रतीत होता है। लक्षण - (१) पालि में श, ष, व स के स्थान पर केवल दन्त्य स ही प्रयुक्त होता है । ७ - द्विवचन का प्रयोग नाम व धातु दोनों रूपों में नहीं है । ८ - व्यंजनान्त प्रतिपादित बहुत कम रह रहे हैं। २पालि में र एवं ल दोनों ही ध्वनियां विद्यमान हैं। ३ - पुल्लिंग व नपुंसकलिंग के कर्त्ता कारक एकवचन में ए की जगह पालि में ओ प्रत्यय जोड़ा जाता है । ४— ऋ, ऋ, लृ-ए-ओ-श-ष-विसर्ग व अघोष, हृ जिव्हामूलक इन दस ध्वनियों का लोप हो जाता है ।, ५ उयनिव रूप दोनों ही दृष्टियों से पालि में तत्कालीन कई बोलियों के तत्व हैं, ऐसा ज्ञात होता है। ६ - पालि में तद्भव शब्दों का प्रयोग ही अधिक है । इसके बाद तत्सम व देश्य शब्दों का ही प्रयोग है । विदेशी शब्दों की संख्या इसमें कम है। पालिका वामय पानि में साम्प्रदायिक ग्रन्थ जैसे त्रिपिटक, विनयपिटक, सूनपिटक, अभिधम्मपिटक, साम्प्रदायिकेतर ग्रन्थों में मिलिन्दपाहो, दीपवंश इत्यादि, छन्दशास्त्र में कात्यायन व्याकरण इत्यादि तो लिखे गये परन्तु संस्कृत व अन्य भाषाओं की तरह सर्वापूर्ण ग्रन्थ नहीं लिखे गये हैं। वर्तमान पालि वाङ्मय को चार भागों में बाँटा जा सकता है । Jain Education International (अ) चौरासी हजार धर्मस्कंधों के रूप में इसका प्रथम वर्गीकरण हुआ किन्तु प्रयोग में नहीं होता है। (ब) दूसरा वर्गीकरण नव अंगों में किया जाता है (१) सुत्त (२) गेप्य (३) वेध्याकरण (४) गाथा (५) उदान (६) इति उत्तक ( ७ ) जातक (८) अब्भुतधम्म (२) वैदल (स) बुद्ध के सम्पूर्ण उपदेशों को पांच निकायों में बांट दिया है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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