SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 836
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्व ४६६ ...................................... ....-. -. -.-. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-... में पंचेन्द्रिय गोपन के कारण का निर्देश किया है तथा इस उदाहरण द्वारा यह बतलाने की कोशिश की है कि जो चंचल कछुए की तरह इन्द्रियों को रखता है, वह निश्चित ही मारा जाता है और जो इन्द्रियों को वश में किये हुए रहता है, वह मुक्ति की ओर अग्रसर हो जाता है। तुम्बक अध्ययन में अष्टकर्म के विषय में समझाया गया है। जो कर्म से युक्त रहता है, वह बन्धनों से युक्त रहता है, परन्तु जो बन्धन तू बी पर अष्टलेप लगे होने पर भी संयम तप आदि से उन लेप को दूर कर अष्ट लेपों से रहित होकर तूंबी की तरह ऊपर जाता है, वह बन्धनों से छूट जाता है। भगवती सूत्र में संवाद शैली का प्रयोग किया गया है, जो अपने आप में एक विशिष्ट स्थान रखती है। सूत्रकृतांग के छठे और सातवें अध्ययन में आर्द्र कुमार के गोशालक और वेदान्ती तथा पेढालपुत्र उदक के गौतम स्वामी के साथ वार्तालाप का उल्लेख आता है। द्वितीय खण्ड में पुण्डरीक का आख्यान बहुत ही शिक्षापूर्ण है। उत्तराध्ययन' में अनेक भावपूर्ण एवं शिक्षापूर्ण आख्यान है। प्रथम अध्ययन में विनय का आख्यान आज की परम्परा के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके सभी आख्यान गहन-सैद्धान्तिक तत्त्वों को समाविष्ट किये हुए पद्यशैली में अपने एक विशेष आदर्श को प्रस्तुत करते हैं। राजीमती और रथनेमि, केशीकुमार और गौतम, भृगुपुत्र आदि के संवाद कर्णप्रिय के साथ अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। सनाथ और अनाथ का परिसंवाद विशुद्ध आचार की शैली को प्रकट करता है। श्रमण की भूमिका क्या, कैसी होनी चाहिए इसकी सम्यक विवेचना उत्तराध्ययन के प्रत्येक अध्ययन में समाविष्ट है। सुभाषित वचनों से युक्त गीता की तरह उत्तराध्ययन भी विशुद्ध भावों से परिपूर्ण ग्रन्थ है। धम्मपद का जो स्थान बौद्धधर्म में है वही उत्तराध्ययन का जैनधर्म में है। श्रमण परम्परा के अनुयायी इसका अध्ययन करते हैं और इसके धर्म का अनुसरण करते हैं। गुहस्थ भी इसका अध्ययन करके अपने जीवन को महत्त्वपूर्ण बना सकते हैं। प्राकृत कथा साहित्य धीरे-धीरे आगम परम्परा से हटकर साहित्यिक सरस वर्णन के साथ एकरूपता के स्थान पर विविधता और नवीनता से युक्त होकर मानव-मन का मनोरंजन करने लगा। पात्र, विषयवस्तु, वातावरण, उद्देश्य, रूपगठन एवं नीति-संश्लेषण आदि का प्रयोग और भी अधिक रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा, जो अत्यन्त ही विस्तृत रूप से कथा-साहित्य के विकास का साधन बन गया। विशुद्ध कथा का रूप प्रथम तरंगवती में आया है । पादलिप्त सूरि ने इस कथा ग्रन्थ की रचना प्रेमकथा के आधार पर विक्रम संवत् की तीसरी शती में की है। वसुदेवहिण्डी वसुदेव के भ्रमण एवं शलाकापुरुषों के जीवनवृत्त के साथ अनेक मनोरंजक कथानकों से परिपूर्ण है। हरिभद्रसूरि' की समराइच्चकहा प्राकृत कथा-साहित्य की समृद्धि का कारण माना गया है । धूर्ताख्यान इसी लेखक की एक व्यंगप्रधान अत्यन्त रोचक रचना है, जिसमें पाँच धूर्तों की बातों का आख्यान अत्यन्त ही रोमांटिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अपनी शैली का एक विशिष्ट एवं अनुपम कथा ग्रन्थ हैं। समराइच्चकहा एक धर्मकथा है। जिसमें आख्यानों के माध्यम से धर्म की विशेषताओं का परिचय दिया है। नायक-नायिकाओं के प्रेम-कथाओं और उनके चरित्रों का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। पहले कथानक प्रेम रूप में पल्लवित होता है और अन्त में वही कथानक संसार की असारता को प्रकट करता हुआ वैराग्य की ओर मुड़ जाता है । इसके कथानक कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन करते हैं । भाषा की दृष्टि से भी इस काव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा है और कहीं-कहीं पर शौरसेनी है। प्राकृत का भी प्रभाव स्पष्ट रूप से पाया जाता है । भाषा सरल एवं प्रवाहबद्ध है। १. डॉ० सुदर्शन जैन-उत्तराध्ययन का सांस्कृतिक अध्ययन, प्र. पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी २. डा० जगदीशचन्द्र जैन-वसुदेवहिण्डी का आलोचनात्मक अध्ययन, अहमदाबाद, १९७६ ३. डा० नेमिचन्द्र-हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy