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________________ ४५० D+0+0+0 Jain Education International कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड सैद्धान्तिक रचनाएँ ये हैं: १. धर्मशिक्षा प्रकरण ३. सूक्ष्मार्च विचारसारोद्वार ५. पिण्डविशुद्धि २. संघपट्टक ४. आगमिक साहित्यिक सौन्दर्य से संचलित रचनाएँ निम्न हैं: ६. द्वादशकुलक आदि । वस्तु विचारसार १. २. प्रश्नोतरं कष्टिशतकाम्य ३. अष्टसप्ततिका अथवा चित्रकूटद्वीप वीर चैत्य प्रशस्ति ४. भावारिवारण आदि । (१३) जिनपतिसूरि - मलधारी जिनचन्द्र के शिष्य जिनपति सूरि का जन्म सं० १२१० में विक्रमपुर में हुआ । आपके पिता का नाम यशोवर्धन एवं माता का नाम सूहवदेवी था । आपने आशिका नरेश भीमसिंह एवं अजमेर-नरेश 'पृथ्वीराज चौहान की सभा में शस्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की। आपकी दीक्षा १२१७ में आचार्य पद प्राप्ति १२२३ तथा मृत्यु १२७७ में हुई । ' आपकी रचनाओं में कतिपय स्तोष के अतिरिक्त वृत्तियां प्रमुख हैं। जिनवल्लभसूरि को संघपटक एवं बुद्धिसागर की पंचलिंगी व्याकरण पर आपकी टीकायें प्रसिद्ध हैं । प्रबोधोदय एवं वादस्थल नामक कृतियाँ दर्शन एवं तर्क की दृष्टि से उपयोगी प्रतीत होती है। (१४) जिनवालोपाध्याय - जिनपति सूरि के शिष्य जिनपासोपाध्याय की दीक्षा संवत् १२२५ में पुष्कर में हुई। सं० १२७३ बृहद्द्द्वार में कश्मीरी पण्डित मनोदानन्द के साथ शस्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की । सं० १३११ में पालनपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। अतः राजस्थान एवं गुजरात आपका कार्यक्षेत्र स्वीकार किया जा सकता है। आपकी कृतियों में दो मूल एवं शेष टीका कृतियां हैं। सनत्कुमार चक्रीचरित शिशुपालवध की कोटि का एक श्रेष्ठ महाकाव्य है। जबकि युगप्रधान आचार्य गुर्वावली जैन आचार्यों का ऐतिहासिक विवरण प्रदान करती है । स्थानक प्रकरण, उपदेश रसायन, द्वादश कुलक, धर्मशिक्षा एवं चचंटी पर विवरण नामक टीकायें प्रमुख है। आचार्य नेपाल एक ओर मूलग्रन्थ रचने की कारयित्री प्रतिभा से सुशोभित हैं वहीं प्राचीन ग्रन्थों को समझकर टीका करने की भावयित्री प्रतिभा से भी सम्पन्न हैं । (१५) लक्ष्मी तिलकोपाध्याय जालोर जनपद के निवासी उपाध्याय लक्ष्मीतिलक ने प्रत्येकयुद्ध परित महाकाव्य की रचना की । इस काव्य में जैन धर्म के सभी मुक्तपुरुषों के जीवनचरित का क्रमिक विवरण है। श्रावकधर्म बृहद्वृति की रचना जालोर में हुई। ३. सूरि श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेऽपि सत्तया । पदवीं भेजे जातरूपधरोऽपि यः । ततः श्री सोमसेनोऽभूत् गणीगुणगणाश्रय, सद्विनेयोऽस्ति जयसेन तपते । शीघ्र बभूव मालूसाधुसदा धर्मरतोवदान्ध, सुनुस्ततः साधु महीपतिस्तमारयं पागभट स्वनूजः ॥ (१६) आचार्य जयसेन - वीरसेन के प्रशिष्य एवं सोमसेन के शिष्य आचार्य जयसेन का पारिवारिक नाम चारुभट था । दिगम्बर सम्प्रदाय में दीक्षित होने के पश्चात् ही आपका नाम जयसेन रखा गया । इनके पितामह का नाम भालूशाह एवं पिता का नाम महीपति था। डा० ए० एन० उपाध्याय ने इनका समय १२ १३वीं शती माना है । १. खतरतगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली २. यह ग्रन्थ महा विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित हो गया हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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