SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 814
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार C] डॉ० शक्तिकुमार शर्मा, "शकुन्त", सहायक शोध अधिकारी (संस्कृत), साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर कर्मकाण्ड एवं आडम्बर के विरोध में पनपे जैन और बौद्ध धर्मों ने समाज के अभिजात्य वर्ग में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने के लिए लोकभाषा एवं लोक संस्कृति का आश्रय लिया। पालि एवं प्राकृत की सरिता में गौतम बुद्ध एवं महावीर ने अपने उपदेशों को प्रवाहित किया। त्रिपिटक एवं आगम साहित्य की रचनाएँ हुई। तथापि जनमानस में संस्कृत तत्वज्ञों के प्रति व्याप्त आदर की भावना ने बौद्ध एवं जैन तत्त्वज्ञों को भी प्रभावित किया । अश्वघोष ने सौन्दरानन्द एवं बुद्धवरित लिवकर ख्याति ऑजत की। फलत: जैन धर्म ने भी धर्माशर्माभ्युदय एवं यशस्तिलकचम्पू की रचना कर संस्कृत में पर्दापण किया। राजस्थान का जैन साहित्यकार भी इस कार्य में पीछे नहीं रहा। विक्रम की अष्टम शती से प्रवाहित यह स्रोतस्विनी आज तक भी कलकल ध्वनि से मरुधरा को निनादित करती रही है। (१) रविषेण-रविषेण सेन परम्परा के आचार्य लक्ष्मणसेन के शिष्य थे।' सेन संघ के भट्टारक सोमकीति राजस्थान के निवासी होने के कारण दिगम्बर सम्प्रदाय के इस संघ का राजस्थान में बहुत प्रचार था। विद्वानों का अनुमान है कि आप भी राजस्थान के निवासी थे। पद्मचरित की पुष्पिका के अनुसार इस रचना की समाप्ति महावीर निर्वाण के १२०३ वर्ष, ६ माह पश्चात विक्रम संवत् ७३४ में हुई । अतएव इनका समय विक्रम की ८वीं शती स्वीकार किया जा सकता है। पद्मचरित जैन दृष्टिकोण से लिखी गई रामकथा है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही इस काव्य के नायक पद्म हैं । १२३ पर्वो की इस रचना में आठवें नारायण लक्ष्मण, भरत, सीता, जनक, अंजना, पवन, हनुमान, राक्षसवंशी रावण, विभीषण एवं सुग्रीव का विस्तृत वर्णन है। (२) हरिभद्रसूरि-श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आप्त पुरुष हरिभद्रसूरि की लीलाभूमि चित्रकूट (चित्तौड़) थी। राजपुरोहित जाति में उत्पन्न आचार्य हरिभद्र ने याकिनी नामक महत्तरा से प्रतिबोधित होकर संन्यास ग्रहण किया। आपके दीक्षा गुरु जिनदत्तसूरि थे । आपका आविर्भाव सं० ७५७ से ८५७ के मध्य स्वीकार किया जाता है। __ भारतीय दर्शन के गढ़तम रहस्यों का अध्ययन कर आपने योग दर्शन को जैन धर्म से मिश्रित कर योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योग-शतक एवं योगविशिका नामक कृतियों की रचना की। न्यायदर्शन के दृष्टिकोण से अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्तजयपताका, न्यायविनिश्चय, लोकतत्त्वनिर्णय, शस्त्रवार्ता समुच्चय, सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण मौलिक एवं दिङ्नाग कृत न्याय प्रवेश टीका तथा न्यायावतार टीका, टीकाग्रन्थ हैं । टीका ग्रन्थों की दृष्टि से आपकी साहित्य को बहुत बहुत बड़ी देन है। इनके प्रमुख टीका ग्रन्थ निम्न हैं -पद्मचरित १. आसादिन्द्रगुरो दिवाकरपतिः, शिष्योऽस्य चाहन्मनि । तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः, शिष्यो रविस्तु स्मृतः ।। द्विशताभ्यधिके समा सहस्र, समतीते अर्धचतुर्थ-वर्ष-युते । जिनभास्करवर्धमानसिद्धेः, चरितं पद्मनेरिदं निबद्धम् ॥ -पद्मचरित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy