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________________ ४४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................................................ समय हुकुमसिंह जी वहाँ के ठाकुर साहब थे। उनकी संस्कृत के प्रति अच्छी रुचि थी। अत: वे कुछ न कुछ संस्कृत पढ़ते या सुनते रहते थे। एक बार उन्हें निम्नलिखित श्लोक का अर्थ समझ में नहीं आया दोषास्त्वामरुणोदये रतिमितस्तन्वीरयातः शिवं, याममितथाः फलान्यद शुभं त्वय्याहतेङगे च काः । नारामं तमजापयोधरहितं मारस्य रंगाहृदः, सोभाधी गृहमेधिनापि कुविशामीशोसि नन्दादिमः।।' ___जब उन्हें मालूम हुआ कि डालगणी यहाँ पधारे हुए हैं तब उन्होंने उस श्लोक को लिखकर डालगणजी के पास भेजा और अर्थ बताने का निवेदन किया। डालगणी ने उस श्लोक को मुनि कालूराम जी को दिया । पर वे उसका अर्थ नहीं बता सके। इस घटना से मुनि कालूराम जी के मन पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने पुन: संस्कृत पढ़ने का दृढ़ निश्चय किया तथा सारस्वत का पूर्वार्द्ध कंठस्थ करना शुरू कर दिया । कुछ दिनों के बाद डालगणी चुरू पधारे । वहाँ के शासन-निष्ठ श्रावक रायचंदजी सुराणा के द्वारा मुनि कालूरामजी का पंडित घनश्यामदासजी से सम्पर्क हुआ। पण्डितजी मुनि कालूरामजी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि कई कठिनाइयों के बावजूद भी उन्हें अवैतनिक रूप से संस्कृत पढ़ाने के लिए तत्पर हो गये। जनके सहयोग से मुनि कालूरामजी अपने निश्चय की ओर गति करने लगे। वि० सं० १९६६ भाद्रपद शुक्ला १२ को डालगणी का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि कालूरास जी की नियुक्ति की । डालगणी के स्वर्गारोहण के बाद मुनि कालूरामजी तेरापंथ धर्म-संघ के अष्टम आचार्य बने । आचार्य बनने के बाद उन पर अनेक संघीय जिम्मेदारियाँ आ गई। फिर भी उन्होंने संस्कृत अध्ययन को उपेक्षित नहीं किया। परन्तु उसमें और अधिक गति लाने का प्रयत्न करने लगे। इस प्रकार अभ्यास करने से आचार्य कालूगणी का संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार हो गया। आचार्य बनने के बाद उन्होंने स्वप्न में एक वृक्ष को फलों, पुष्पों से लदा हुआ देखा । जिसका अर्थ उन्होंने यह किया कि अब हमारे संघ में संस्कृत का वृक्ष अवश्य ही फलितपुष्पित होगा। वि० सं० १६७४ का सरदारशहर चातुर्मास सम्पन्न पर आचार्य कालूगणी चुरू पधारे। उस वहाँ के यति रावतमलजी की प्रेरणा से आशुकवि पण्डित रघुनन्दन जी का आचार्य कालूगणी के साथ सम्पर्क हुआ। प्रथम सम्पर्क में ही पण्डितजी की अनेक भ्रान्त धारणाओं का निराकरण हुआ और उन्होंने कालूगणी के पास सम्यक् प्रकार से तेरापंथ की साधु चर्या की जानकारी प्राप्त की। दूसरे दिन उन्होंने “साधु-शतक" बनाकर उसकी प्रतिलिपि कालूगणी को अर्पित की। कालूगणी ने तीन घन्टे में बनाये हुए उस “साधु-शतक" को गौर से देखा और पण्डितजी की ग्रहणशीलता और सूक्ष्ममेधा को परखा । तत्पश्चात् पण्डितजी आचार्य कालूगणी के प्रति समर्पित होकर तेरापंथ धर्मसंघ को अपनी सेवाएँ देने लगे। इस प्रकार संघ को पण्डित धनश्यामदासजी तथा पं० रघुनन्दनजी का अपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ। उन दोनों के सहयोग से तथा आचार्य कालूगणी की पावन प्रेरणा से अनेक मुनियों ने संस्कृत के क्षेत्र में विकास किया। उस समय कई मुनियों ने संस्कृत में कालू कल्याण मन्दिर तथा कालू भक्तामर स्तोत्र की रचना की। उनमें मुनि तुलसीरामजी (आचार्य श्री तुलसी), मुनि कानमलजी, मुनि नथमल जी (बागौर), मुनि सोहनलाल जी (चुरू), मुनि धनराज जी (सिरसा) तथा मुनि चंदनमल जी (सिरसा) थे । मुनि चौथमलजी ने संस्कृत व्याकरण अध्येयताओं के लिए "कालू-कौमुदी" की रचना कर उनके अध्ययन को सुगम बना दिया। इसके साथ-साथ उन्होंने भिक्ष शब्दानुशासन जैसे विशालकाय ग्रन्थ की रचना की। इन रचनाओं में उन्हें पण्डित रघुनन्दनजी का अविस्मरणीय सहयोग मिला। प्राचार्य कालूगणी के शासनकाल में साधुओं में संस्कृत भाषा की गति हो रही थी पर साध्वियों में विशेष नहीं । आचार्य कालूगणी की हार्दिक इच्छा थी कि साध्वियों में भी संस्कृत भाषा का विकास हो। पर उनका स्वप्न १. महामनस्वी आचार्य श्री कालूगणी का जीवन-वृत्त, पृ० २६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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