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________________ १८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ... .................................................................. बैठक में सबकी सुनते हैं किन्तु संस्था के सिद्धान्त व रीति-नीति के विपरीत कभी कोई समझौता नहीं करते। संस्था का एक पैसा भी व्यर्थ में बरबाद न हो, इस बात की प्राणपण से चेष्टा करते हैं। छात्रावास में छात्रों की क्या स्थिति है, कौन पढ़ता है, कौन नहीं पढ़ता है, कौन बीमार है, और कोन साफ-सुथरा नहीं रहता, आप इन सब बातों की व्यक्तिगत जानकारी लेते हैं । आप प्रतिदिन नियमित भोजन व नाश्ते की जांच करते हैं । भोजन बनाने में कोई गड़बड़ी तो नहीं हुई, भोजन कम तो नहीं पड़ता, भोजन के कच्चे सामान को किसी ने इधर-उधर तो नहीं किया, इन बातों की आकस्मिक जाँच करते हैं। छात्रावास में छात्रों को भोजन व नाश्ता घर की तरह मिले, इस बात का भी विशेष ध्यान रखते हैं, क्योंकि छात्रों के स्वास्थ्य व अध्ययन पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है । आपकी प्रबन्धपटुता और प्रशासन की प्रबुद्धता का ही यह पुण्य प्रताप है कि आज भी श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ तथा उसके द्वारा संचालित प्रवृत्तियाँ उत्तरोत्तर विकासमान हैं । कर्मयोगी : कांठा के कंठहार आपके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की कर्मठता का कर्मयोगी रूप उपयुक्त अवलोकन से स्वयं स्पष्ट है । कर्म के प्रति आपकी निष्ठा आपके नस-नस में व्याप्त है । जो काम हाथ में लेते हैं, उसे पूर्ण किये बिना आपको चैन नहीं, काम के प्रति ईमानदारी आपके स्वभाव की प्रमुख विशेषता है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' आपके जीवन का ध्येय वाक्य है । आपकी कर्मठता के आगे असफलता स्वयं असफल हो जाती है। यही कारण है कि आप वट वृक्ष रूपी इतनी विशाल संस्था के कार्य को सहज रूप से सम्पन्न करते हुए भी आप समाज और विभिन्न संस्थाओं के अनेक पदों का दायित्व सफलतापूर्वक निभा रहे हैं । आपने अपने जीवन के ७०वें बसन्त की समाप्ति पर वर्ष में छः माह जैन विश्व भारती लाडनू को समर्पित करने की घोषणा की है। आपके कार्य की इसी शैली ने, एकाग्रता और तल्लीनता ने आपको कर्मयोगी बनाया ऐसे कर्मयोगी काकासा कांठा क्षेत्र के कण्ठहार हैं। कांठा अंचल आप जैसे पुण्यपुरुष को पाकर धन्य है । आचार्य भिक्षु और मुनि हेमराज के बाद जन-जन को काकासा की कर्मठता ने ही सर्वाधिक प्रभावित किया है। शत-शत अभिनन्दन - भगवान महावीर ने कहा है कि "कम्मुणा उवाही जायइ" (आचारांग १-३-१) अर्थात् कर्म से समस्त उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं लेकिन ग्रन्थनायक श्री केसरीमलजी सुराणा को कोन सी उपाधि दें, कितनी उपाधियाँ दें, उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की भव्यता के समक्ष किसी एक उपाधि से आभूषित करना दिनकर को दीपक दिखाना है, लेकिन आपके इस तेजस्वी तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्व के फलस्वरूप समाज को जो स्फूर्ति और तेज मिला है, उसके ऋण से उऋण होना असम्भव है । आप सचमुच में महामना है, कर्मयोगी हैं, तपोपूत, नरपुगव और कांठा क्षेत्र के लाडले सपूत हैं । आपका आडम्बरहीन, निष्कपट एवं बहुमुखी व्यक्तित्व अन्यत्र दुर्लभ है। आपकी सेवायें निःसन्देह सराहनीय और श्लाघनीय हैं । उनका जितना भी अभिनन्दन किया जाय उतना अल्प है। अब तो स्थिति यह हो गयी है कि आप राणावास से बाहर जहाँ भी जाते हैं वहाँ आपके अभिनन्दन का आलोक परिव्याप्त हो जाता है। राणावास में तो आपके सार्वजनिक अभिनन्दन एकाधिक बार हुए ही हैं किन्तु मद्रास, जयपुर, बंगलौर, लाडनू आदि स्थानों पर भी आपका अभिनन्दन किया गया है। राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर की पच्चीस सौवी (२५०० वीं) निर्वाण महोत्सव समिति द्वारा आपको 'समाज सेवक' की उपाधि से अलंकृत किया गया है। अखिल भारतीय भारत जैन महामण्डल की ओर से आपको 'समाज सेवी' सम्बोधन से समुच्चरित किया गया है । युवामंच बम्बई ने आपको 'मरुधर गौरव' की अभिधा से अभिनन्दित किया है । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी आपको गृहस्थ साधु, ऋषि, सन्त आदि सम्बोधनों से सम्बोधित करते हैं। ऐसे महापुरुष, महामानव, एवं मानव जाति के मसीहे का अभिनन्दन करना हम सबका अहोभाग्य है, हम धन्य हैं कि हमें इस जीवन में यह सौरभ, सौभाग्य और यह सुअवसर मिला। आप दीर्घायु हों और इसी तरह संस्था, समाज और समस्त मानवजाति क मार्गदर्शन करते रहें, यहीं अन्तः स्तल की मंगल कामना है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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