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________________ + Jain Education International -गी. नाकीम बजी सुन्दर अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड, ही प्राकृत बोलियों को प्राकृत अपभ्रंश नाम दिये । साधारण लोक जीवन में प्राकृतें प्रतिष्ठित थीं। इसी कारण कोश की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। पांचवीं छठी शती पूर्व तक प्राकृत में शब्द कोशों की रचना नहीं हुई थी । प्राकृतों के रूढ़ होने पर छठी शती में अपभ्रंश प्रकाश में आ गयी थी। जैन परम्परा के अनुसार जैन आगम ग्रन्थ भगवान महावीर के १२३ वर्ष में सर्वप्रथम वल्लभी में देवधगणी 'क्षमाश्रमण' ने लिपिबद्ध किये लगभग पांचवी शताब्दी में जैनागमों के लिपिबद्ध होने तक कोई शब्द कोश नहीं रचा गया, लेकिन साहित्य रचना की दृष्टि से संस्कृत परम्परा प्राचीन रही है। प्राच्य विद्या विशारद 'वूल्हर' ने सर्वप्रथम प्राकृत शब्दकोषों की विवरिणिका बनायी थी । ' जैन वाङ्मय में कोशकार एवं कोश जैन विद्वानों ने एवं मुनियों ने संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में विविध कोशों की रचना की, जिनका संक्षिप्त उल्लेख एव सामान्य परिचय निम्न पंक्तियों में दिया जा रहा है : (१) धनपाल जैन पाइयलच्छीनाममाला - यह कोश उपलब्ध प्राकृत कोशों में प्रथम है। इसके रचनाकार पं० धनपाल जैन थे । ये गृहस्थ थे। पं० धनपाल जन्म से ब्राह्मण थे। आप धाराधीश मुंजराज की राज्यसभा के सामान्य विदुर थे। मुंजराज आपको सरस्वती कहा करते थे। अपने भाई शोभन मुनि के उपदेश से जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया, तदनन्तर जनत्व अंगीकार किया। आपने अपनी छोटी बहिन 'सुन्दरी' में लिए वि० सं० १०२९ में इस कोश की रचना की । 'पाइयलच्छी नाममाला' कोश में २७६ गाथायें हैं। इसमें २६८ शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। देशी शब्दों का इस ग्रन्थ में अच्छा अभिधान हुआ है। स्वयं धनपाल ने देशी शब्दों का उल्लेख किया ।" आज भी हमारे बोलचाल के शब्द इन कोशों में ज्यों के त्यों मिलते हैं। जैसे - कु पल ( कोंपल), मुक्खा (मूर्ख), खाइया (खाई) आदि । इसी प्रकार संस्कृत एवं अन्य भाषाओं के शब्द भी इष्टव्य हैं। हेमचन्द्रविरचित अभिधानचिन्तामणि में भी इसकी प्रामाणिकता एवं महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। शार्ङ्गधर पद्धति में भी धनपाल के कोश विषयक ज्ञान का उल्लेख मिलता है। पं० धनपाल द्वारा विरचित अन्य ग्रन्थ निम्न हैं २. श्रावक विधि, ४. महावीरस्तुति, ६. शोभनस्तुति टीका १. तिलक मंजरी, ३. ऋषभपंचाशिका ५. सत्यपुंडरीक मंडन (२) धनंजय : धनंजयनाममाला - कवि धनंजय ने 'धनंजयनाममाला' की रचना की । इनके काल का निर्धारण भी अभी नहीं हो पाया है । कतिपय विद्वान् इनका समय नौवीं; कोई दशवीं शताब्दी मनाते हैं । आप दिगम्बर जैन थे । 'द्विसंधान महाकाव्य' के अन्तिम पद्य की टीका के अनुसार धनंजय के पिता का नाम वसुदेव, माता का नाम श्रीदेवी और गुरु का नाम दशरथ सूचित किया गया है । ५ १. Zachariae in Die - Indischen Worterbucher in Buhler's Encyclopaedia 1897. २. कइओ अंध अणकि वा कुसलत्ति पयाणमतिना वण्णा । नामाम्मि जस्स कम सो तेणेसा निरइया देशी ॥ ३. "पोओ वहणं सबरा य किराया " दलीय २७४ ४. आचार्य प्रभाचन्द्र और वादिराज ( ११वीं शती) ने धनंजय के द्विसंधान महाकाव्य का उल्लेख किया है। सूक्ति मुक्तावली में राजशेखर कृत धनंजय की प्रशस्ति सूक्ति का उल्लेख है । ५. महावीर जैन सभा, खंभात शक संवत् १८१८ (मूल) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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