SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 767
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -0 Jain Education International ४०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड में सूर्य जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग नक्षत्रों के स्वभाव व गुण भी जम्बूद्वीप की ओर आता है, अतः दिनमान क्रमशः बढ़ता है, तथा दक्षिणायण से लवणसमुद्र की ओर क्रमशः गति करता है, अतः दिनमान घटता जाता है। बताये हैं । इससे आगे मुहूर्तशास्त्र विकसित हुआ । इसमें पंच पताका युग मानकर तिथि, नक्षत्रादि का विचार किया गया है । इस ग्रन्थ पर भद्रबाहु ने नियुक्ति और मलयगिर ने संस्कृत टीका लिखी है। इसका प्रकाशन सं० १९९९ मैं मलयगिरि की टीका सहित आगमोदय समिति बम्बई ने किया है। (२) चन्द्रप्रज्ञप्ति ( चंदपण्णत्ति ) - इसका भी उपांगों में समावेश है। यह सातवाँ उपांग है। इसका विषय भी सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है। परन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसमें २० प्राभृत हैं। इसमें चन्द्र की परिभ्रमण गति, विमान आदि का वर्णन है । चन्द्र की प्रतिदिन योजनात्मिका गति बतायी गयी है। इसमें १९वें प्राभृत में चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बताया गया है। इसके घटने-बढ़ने का कारण राहु ग्रह है । छाया-साधन और छाया-प्रमाण पर से दिनमान का ज्ञान बताया है। कीलकच्छाया व पुरुषच्छाया का विवेचन है। वस्तुओं की छाया का वर्णन भी है। इसी से आगे गणित, ज्योतिष का विकास हुआ। चौकसी ने सम्पादित कर सन् १९३८ में अहमदाबाद से प्रकाशित किया है। गोल, त्रिकोण और चौकोर यह ग्रन्थ प्रो० गोपानी और (३) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (अम्बुद्दीपयति ) - इसके दो भाग हैं—पूर्वार्ध और उत्तरा पहले भाग के ४ परि छेदों में जम्बूद्वीप और भरतक्षेत्र तथा उसके पर्वतों, नदियों आदि का एवं उत्सर्पिणीय अवसर्पिणी नामक काल विभाग का तथा कुलकरों, तीपंकरों, चक्रवतियों आदि का विवरण है। (४) गणिविद्या (गणिविक्जा) दस प्रकीर्णकों में आठवा गणिविज्जा है। इसमें ६२ गाथाएँ हैं जिसमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रह, मुहूर्त शकुन आदि का विचार किया है। इस दृष्टि से यह ज्योतिष की महत्वपूर्ण कृति है, इसमें लग्न और होरा का भी उल्लेख है । , (५) ज्योतिषकरंडक ( जोइसकरंडन) (६० ५० १०० ) - इसको भी प्रकीर्णक ग्रन्थों में ही शामिल किया जाता है। इसका प्रकाशन रतलाम से १९२८ में हो चुका है। मुद्रित प्रति में 'पूर्वभृद बालभ्य प्राचीनतराचार्य' कृत ऐसा उल्लेख होने से इसकी रचना अत्यन्त प्राचीन प्रमाणित होती है, इसमें ३७६ गाथाएँ हैं और भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है । इसमें उल्लेख है कि इसकी रचना सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर संक्षेप में की गयी है । इस ग्रन्थ में २१ पाहुड हैं—कालप्रमाण, मान, अधिकमास निष्पत्ति, तिथि - निष्पत्ति, ओमरत्त (हीनरात्रि), नक्षत्रपरिमाण, चन्द्र-सूर्य परिमाण, नक्षत्र-चन्द्र-सूर्य-गति नक्षत्रयोग, मण्डलविभाग, अयन, आवृत्ति, मुहूर्तगति ऋतु विषुवत् (अहोरात्रसमत्व ), व्यतिपात, ताप, दिवसवृद्धि, अमावस - पौर्णमासी, प्रनष्टपर्व और पौरुषी । इसमें ग्रीक ज्योतिष से पूर्ववर्ती विष्यक काल के लन्न- सिद्धान्त का प्रतिपादन है। इससे यह ग्रीकों से पहले की प्रणाली निश्चित होती है। जैसे नक्षत्रों की विशिष्ट स्थिति 'राशि' कहलाती है वैसे ही इस ग्रन्थ में नक्षत्रों की विशिष्ट दशा को लग्न कहा गया है ।" भाषा व शैली से यह ग्रन्थ ई० पूर्व ३००-४०० वर्ष का है । 7 1 निशीचूर्ण ( १२ ) इसमें विवाहपटल' (विवाहपटल) जो विवाह के समय तथा 'अर्धकांड' (अग्धकांड), जो व्यापार में काम आता था, नामक ज्योतिष ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । करणानुयोग साहित्य में दिगम्बर परम्परा में लोकविभाग, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अन्तर्भाव किया जाता है। लोकविभाग – यह मूलग्रन्थ प्राकृत में रहा होगा, जो अनुपलब्ध है। इसका बाद में सिंहसूरि ने संस्कृत पचानुवाद किया था । सिंहसूरि की सूचना के अनुसार यह मूल ग्रन्थ कांची के राजा सिंहवर्मा के २२ वें संवत्सर (शक सं० ३८० ) में सर्वनंदिमुनि ने पांड्य राज्य के पाटलिक ग्राम में लिखा था कुन्दकुन्द ने नियमसार ( गाथा १७) में इसका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy