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________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य ३६६ ...............................................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. ३. स्वतन्त्र जैन श्रावक विद्वानों और चिकित्सकों द्वारा ग्रन्थ-प्रणयन । निम्न पंक्तियों में भारतवर्ष के कुछ प्रसिद्ध जैन वैद्यक-मनीषियों और उनके ग्रन्थों का परिचय दिया जा रहा है यहाँ प्रारम्भ कर्णाटक के जैन आयुर्वेद साहित्य के वर्णन से करेगे, क्योंकि उपलब्ध जैन आयुर्वेद ग्रन्थों में प्राचीनतम ग्रन्थ में वहीं पर उपलब्ध हैं। _ 'कल्याणकारक नामक प्राणावाय' ग्रन्थ ईसवीय आटवीं शताब्दी के अन्त का मिलता है। उसमें इस परम्परा के प्राचीन विद्वानों और उनके ग्रन्थों का उल्लेख है-"पूज्यपाद ने शालाक्य पर, पात्रस्वामी ने शल्यतन्त्र पर, सिद्धसेन ने विष और उग्र ग्रह शमनविधि सम्बन्धी, दशरथगुरु ने कायचिकित्सा पर, मेघनाद ने बालरोगों पर, सिंहनाद ने वाजीकरण और रसायन पर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी।" (कल्याणकारक, परिच्छेद २०, श्लोक ८५)। कल्याणकारक में यह भी कहा गया है कि “समन्तभद्र ने विस्तारपूर्वक आयुर्वेद के आठों अंगों पर जो कहा था, संक्षेप में मैं (उग्रादित्य) ने अपनी शक्ति के अनुसार यहाँ (इस ग्रन्थ में) पूर्णरूप से कहा है।" (क० का०, परिच्छेद २०, श्लोक ८६)। उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि उग्रादित्य के कल्याणकारक ग्रन्थ की रचना से पूर्व दक्षिण में (विशेषकर कर्णाटक में, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे उक्त सभी वैद्यक विद्वान् कर्नाटक के ही थे) जैन प्राणावाय-आगम के विद्वानों की एक सुदीर्घ परम्परा रही थी और उनके द्वारा विभिन्न ग्रन्थ भी रचे गये थे। दुर्भाग्य से अब इनमें से कोई ग्रन्थ नहीं मिलता । केवल उग्रा दित्याचार्य का कल्याणकारक उपलब्ध है। यह संस्कृत में है और सोलापुर से हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित भी हो चुका है। समंतभद्र का काल ई० ३ से ४थी, शताब्दी माना जाता है। वर्तमान में इनका वैद्यक ग्रन्थ नहीं मिलता। "पुष्प आयुर्वेद" नामक कोई ग्रन्थ इनके नाम से कर्नाटक मिलता है, परन्तु वह सन्दिग्ध है। उग्रादित्य ने इनके अष्टांगसम्बन्धी विस्तृत ग्रन्थ का उल्लेख किया है। पूज्यपाद-इनका काल ५वीं शताब्दी है। इनका प्रारम्भिक नाम देवनन्दि था, परन्तु बाद में बुद्धि की महत्ता के कारण यह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये तथा देवों ने जब इनके चरणों की पूजा की, तब से यह 'पूज्यपाद' कहलाने लगे। मानवजाति के हित के लिए इन्होंने वैद्यकशास्त्र की रचना की थी। यह ग्रन्थ अप्राप्य है। कल्याणकारक में अनेक स्थानों पर 'पूज्यपादेन भाषित:' ऐसा कहा गया है । आन्ध्र प्रदेश में रचित १५वीं शताब्दी के 'वसवराजीय' नामक ग्रन्थ में पूज्यपाद के अनेक योगों का उल्लेख मिलता है। पूज्यपाद के अधिकांश योग धातु-चिकित्सा सम्बन्धी हैं। इनका ग्रन्थ 'पूज्यपादीय' कहलाता था। यह संस्कृत में रहा होगा । कर्नाटक में पूज्यपाद का एक कन्नड़ में लिखित पद्यमय वैद्यक ग्रन्थ मिलता है । 'वैद्यसार' नामक ग्रन्थ भी पूज्यपाद का लिखा बताया जाता है, जो जैन-सिद्धान्त-भास्कर में प्रकाशित हो चुका है, परन्तु ये दोनों ही ग्रन्थ वस्तुतः पूज्यपाद के नहीं हैं। __ आठवीं शताब्दी के अन्त में दिगम्बराचार्य उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' नामक अष्टांग ग्रन्थ की संस्कृत में रचना की थी। यह रामगिरि (वर्तमान विशाखापट्टन जिले में है) के निवासी थे। परन्तु राजनैतिक उथल-पुथल से इन्हें बाद में हवीं शती के प्रारम्भ में राष्टकूट राजा नृपतुग अमोघवर्ष प्रथम के राज्य में आश्रय लेना पड़ा। नृपतुग के दरबार में उपस्थित होकर उन्होंने मांस निषेध पर एक विस्तृत भाषण दिया था, जो कल्याणकारक ग्रन्थ के अन्त में 'हिताहित' अध्याय के रूप में सम्मिलित किया गया है। ___ संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त कन्नड़ भाषा में भी ग्रन्थ रचे गये । जैन मंग(ल)राज ने स्थावर विष की चिकित्सा पर 'खगेन्द्रमणिवर्पण' नामक एक बड़ा ग्रन्थ लिखा था। यह प्रारम्भिक विजयनगर साम्राज्य काल में राजा हरिहरराज के समय में विद्यमान था। इनका काल ई० सन् १३६० के आसपास माना जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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