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________________ विचिन्तामणिमुनि विनयसागरसूरि ने इसकी रचना की थी। स्वयं प्रकार ने इसका परिचय इस श्री विधिपक्ष गच्छेशाः सूरिकल्याणसागराः । तेषां शिष्येवंराचायें: सूरिविनयसागरैः ॥२४॥ सारस्वतस्य सूत्राणां, पद्यबन्धविनिमितः । विद्वच्चिन्तामणि ग्रन्थः कण्ठपाठस्य हेतवे ॥ २५ ॥ प्रकार दिया है संस्कृत-व्याकरण-परम्परा ३६१ इसकी एक प्रति ता०६० संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में विद्यमान है। शग्यप्रक्रियासाधनी – आचार्य विजयराजेन्द्र सूरि ने २०वीं शताब्दी में इसकी रचना की। शब्दार्थचन्द्रिका — विजयानन्द के शिष्य हंसविजयगणि ने इसकी रचना की थी। सं० १७०८ में ग्रन्थकार के विद्यमान होने का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त इनका अन्य परिचय नहीं मिलता है । सारस्वतीका मुनि सत्यप्रबोध ने इसका प्रणयन किया। पाटन और लींबड़ी के भण्डारों में इसके हस्तलेख प्राप्त होते हैं । सारस्वतटीका — इस श्लोकबद्ध टीका की रचना तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र ने की थी । श्री अगरचन्द नाहटा के संग्रह में इसकी प्रति प्राप्त है । सारस्वतटीका - अपरनाम धनसागरी नामक इस ग्रन्थ की रचना मुनि धनसागर ने की थी । इसका उल्लेख जैन साहित्य के संक्षिप्त इतिहास में किया गया है। सारस्वत रूपमाला - रचनाकार पद्मसुन्दरगणि ने इसमें धातुरूपों को दर्शाया है । वि० सं० १७४० में लिखी गई इसकी प्रति ला० द० भा० संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में प्राप्त है । सारस्वतमण्डनम् - श्रीमालजातीय मन्त्री मण्डन ने १५वीं शताब्दी में रचना की थी । सारस्वतवृत्ति तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र ने १७वीं शताब्दी में इस वृत्तिग्रन्थ की रचना की थी। यह क्षेमेन्द्र रचित सारस्वत टिप्पणी पर वृत्ति है । इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ पाटण तथा छाणी के ज्ञान भण्डारों में विद्यमान हैं। सारस्वतवृत्ति–विसं०] १६०१ में खरतरगच्छीय मुनि सहजकीर्ति ने इसकी रचना की थी। इसके हस्तलेख कार के श्री पूजाजी तथा चतुर्भुजजी के भण्डार में सुरक्षित हैं । सिद्धान्तरत्नम् - युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इस ग्रन्थ के रचनाकार जिनरत्न थे । यह बहुत अर्वाचीन ग्रन्थ माना है । सिद्धान्तचन्द्रिका व्याकरण की टीकाएँ रामाश्रम या रामचन्द्राश्रम ने "सिद्धान्तचन्द्रिका" नामक एक विशदवृत्ति का प्रणयन किया । इसमें लगभग २३०० हजार सूत्र हैं । इस पर भी जैनाचार्यों द्वारा रचित अनेक टीका ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । इनका सामान्य परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । अनिट्कारिका स्वोपज्ञवृत्ति - नागपुरीय तपागच्छ के हर्षकीर्तिसूरि ने इसकी रचना की है । अनिट्कारिका पर यह स्वपोज्ञवृत्ति है । रचनाकाल सं० १६६६ है । बीकानेर के दानसागर भण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति विद्यमान है । सुबोधिनी -- खरतर आम्नाय के श्री भक्तिविनय के शिष्य सदानन्दगणि ने इस ग्रन्थ की रचना की। इसमें भाये श्लोक के अनुसार इसका रचनाकाल १७९६ है । श्लोक इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only O www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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