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________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा ३४५ पर वस्तुतः ये दोनों व्याकरण भिन्न हैं । जैनेन्द्र व्याकरण के पहले ही ऐन्द्र व्याकरण के उल्लेख मिलते हैं। इस भ्रम को फैलाने का जिम्मेदार रत्नर्षि के “भग्वद्वाग्वादिनी" नामक ग्रन्थ को मानते हुए डॉ० गोकुलचन्द जैन ने इस भ्रम के निवारण का प्रयास किया है। इस ऐन्द्र व्याकरण की रचना ईसापूर्व ५६० में हुई होगी, ऐसा विद्वान् लोग मानते हैं। पर यह व्याकरण अद्यावधि उपलब्ध नहीं हुआ है। क्षपणक व्याकरण अनेकानेक ग्रन्थों में आये हुए प्रमाणों से ज्ञात होता है कि किसी क्षपणक नामक वैयाकरण ने भी शब्दानुशासन की रचना की थी। तन्त्रप्रदीप में क्षपणक के व्याकरण का अनेक बार उल्लेख हुआ है। एक स्थान पर आया है 'अत एव नावमात्मानं मन्यते इति विग्रहपरत्वादनेन हस्वत्वं बाधित्वा अमागमे सति "नावं मन्ये' इति क्षपणक व्याकरण दशितम् ।' कवि कालिदास रचित "ज्योतिर्विदाभरण" नामक ग्रन्थ में विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में क्षपणक का भी उल्लेख हुआ है । यथा-- धन्वन्तरि क्षपणकोऽमरसिंह शंकु-. वेतालभट्ट घटकपर-कालिदासाः ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य ।। तन्त्रप्रदीप सूत्र ४.१.१५५ में "क्षपणक महान्यास" का उल्लेख है। उज्ज्वलदत्त विरचित "उणादिवृत्ति" में "क्षपणक वृत्तौ अत्र इति शब्द आद्यर्थे व्याख्यातः” इस प्रकार उल्लेख किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि शब्दानुशासन के अतिरिक्त न्याय और वृत्ति ग्रन्थ भी क्षपणक विरचित रहे होंगे । पर आज तक क्षपणक के अन्य शास्त्रों में उल्लेख के अतिरिक्त उनकी किसी भी प्रकार की रचना प्राप्त नहीं हुई है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि व्याकरण की परम्परा में यह जैन व्याकरणत्रयी बहुत महत्त्वपूर्ण है। परवर्ती व्याकरणशास्त्रकारों ने इस त्रयी को अत्यन्त आदर के साथ स्मरण किया है । इनके अतिरिक्त देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में श्रीदत्त, यशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन और समन्तभद्र इन प्राचीन जैनाचार्यों के मतों का उल्लेख किया है । परन्तु इन आचार्यों का कोई भी ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं हुआ है और न कहीं अन्यत्र इनके वैयाकरण होने का उल्लेख मिलता है। इन पूर्वाचार्यों के पश्चात् जैन व्याकरण परम्परा के व्याकरणशास्त्र उपलब्ध होने लगते हैं । उपलब्ध व्याकरण शास्त्रों की भी एक दीर्घ-परम्परा विद्यमान है। इस परम्परा के अन्तर्गत अनेक आचायों ने महत्त्वपूर्ण व्याकरणशास्त्रों की रचनाएँ थीं। इन स्वयं ने तथा अन्यान्य आचार्यों ने इनके व्याकरण पर परप्रक्रिया ग्रन्थ, वृत्तियाँ, न्यासग्रन्थ आदि ग्रन्थों की रचनाएँ की । इन पर विस्तार से प्रकाश डालने पर इनका महत्त्व स्वतः प्रकट हो जायगा। जैनेन्द्र व्याकरण उपलब्ध जैन व्याकरण के ग्रन्थों में जैनेन्द्र व्याकरण प्रथम कृति मानी जाती है। इसकी रचना पूज्यपाद आचार्य देवनन्दी ने की। देवनन्दी दिगम्बर परम्परा के विश्रुत जैनाचार्य थे। उनके पूज्यपाद तथा जैनेन्द्रबुद्धी नाम भी प्रचलित थे। नन्दीसंघ की पट्टावली में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है -0 १. संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० ४०. २. भरत कौमुदी, भाग २, पृ०८६३ की टिप्पणी. ३. (i) गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् ॥१. ४. ३४ ॥ (i) कृवृषिमृजां यशोभद्रस्य ॥२. १.६६ ॥ - 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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