SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 702
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेरापंथी जैन व्याकरण साहित्य पढ़ने में सुबोध होने के साथ-साथ रोचक भी है। भिक्षुशब्दानुशासन का निर्माण हुआ तब उसमें उणादि पाठ नहीं रखा गया, इसलिए स्वतन्त्र रूप से मूत्र और वत्ति की रचना की गई। इस रचना का आधार हेमशब्दानुशासन है । ग्रन्थकार ने इसकी सूचना देते हुए लिखा है श्रीमती हेमचन्द्रस्य सिद्धणब्दानुशासनात् । औणादिकानि सूत्राणि गृहीतानि यथाक्रमम् ॥१॥ संज्ञाधात्वनुबन्धेषु प्रत्याहारादि रीतिषु । यत्र भेदस्थितस्तत्र स्वक्रमः परिवर्तितः ॥२॥ तुलसी मंजरी साधु-साध्वियों के लिए संस्कृत की भाँति प्राकृत का अध्ययन भी आवश्यक है, क्योंकि आगम-साहित्य प्राकृत भाषा में निबद्ध है । किसी भी साहित्य को मूल भाषा में पढ़ने से जो आनन्द मिलता है तथा अर्थ-बोध होता है वह उसके अनुवाद में नहीं हो सकता। संस्कृत-व्याकरण पढ़ लेने के बाद प्राकृत व्याकरण की क्लिष्टता स्वयं समाप्त हो जाती है। उसमें भाषा-सम्बन्धी परिवर्तन को छोड़कर अधिकांश नियम संस्कृत व्याकरण के ही हैं। कुछ नियम अवश्य भिन्न हैं जिन्हें समझने के लिए प्राकृत-व्याकरण का अध्ययन जरूरी है। हेमशब्दानुशासन का आठवाँ अध्याय प्राकृत व्याकरण से सम्बन्धित है। हेमशब्दानुशासन पढ़ने वालों के लिए प्राकृत व्याकरण साथ ही पढ़ा जाता है किन्तु 'भिक्षुशब्दानुशासनन्' में यह क्रम नहीं है इसलिए पृथक् व्याकरण बनाने की अपेक्षा महसूस हुई। मुनिश्री नथमलजी (युवाचार्य महाप्रज्ञ) ने तेरापंथ संघ के वर्तमान आचार्य के नाम पर 'तुलसी मंजरी' नामक प्राकृत व्याकरण बनाया। इस व्याकरण के दो रूप हैं। इसका पहला रूप प्रक्रिया के क्रम से है तथा दूसरा अष्टाध्यायी के क्रम से । विद्यार्थी साधु-साध्वियां अपनी सुविधा के अनुसार दोनों क्रमों से अध्ययन करते हैं। इसका हिन्दी अनुवाद साथ में रहने से विद्यार्थियों को पढ़ने में काफी सुविधा रहती है। तुलसी-मंजरी में प्राकृत भाषा के साथ शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषा के विशेष नियम भी हैं । जिन नियमों में एकरूपता है उनके लिए 'शेष प्राकृतवत्' 'शेषं शौरसेनीवत्' कहकर विद्धाथियों को सूचित कर दिया गया है। उदाहरणों में भी सरलता रखने का प्रयास किया गया। यह कृति छोटी होने पर भी प्राकृत भाषा का सर्वांगीण अध्ययन कराने में सक्षम है। भिक्षुशब्दानुशासन और अन्य व्याकरण भिक्षुशब्दानुशासन के निर्माण में पूर्ववर्ती व्याकरणों को आधार माना गया है, किन्तु इसमें मात्र उनका अनुकरण ही नहीं हुआ है । पूर्ववर्ती व्याकरणों के कई स्थल इसमें छूट गए हैं और कुछ नए तथ्य जोड़ गए हैं। रचनाक्रम में भी अन्तर है। हेमशब्दानुशासन में लिंग ज्ञान के लिए व्याकरण के बीच में लिंगानुशासन रखा गया है। भिक्षुशब्दानुशासन में उसे नहीं रखा गया, अतः वह स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में है। हेमव्याकरण में एक अध्याय के चारों पाद परस्पर सापेक्ष हैं। पहले पाद में जो काम होता है उसका अवशिष्ट भाग दूसरे में है, किन्तु भिक्षुशब्दानुशासन में हर चरण अपने आप में पूर्ण है । हेमशब्दानुशासन में .स्वर आदि संज्ञाओं को उल्लिखित करके स्वरों का परिचय कराया गया है। भिक्षुशब्दानुशासन प्रत्याहार सूत्र में स्वरों और व्यंजनों को उल्लिखित करने के बाद संज्ञाओं का निर्धारण करता है । हेमव्याकरण में घोष-अघोष आदि को विस्तार से समझाया गया है पर भिक्षुशब्दानुशासन में इसको अपेक्षा नहीं समझी गई । कुछ स्थलों पर एक ही अर्थ के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है, जैसे-करण, साधन, हेतु, निमित्त, अधिकरण, आधार आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy