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________________ ८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड विद्यालय की गति-प्रगति देखना चाहिए। दोनों इस उद्देश्य से राणावास आये किन्तु उन्हें निराशा हाथ लगी । विद्यालय की स्थिति ठीक नहीं थी। आपने सोचा कि तेरापंथ समाज का शिक्षा-प्रसार के क्षेत्र में यह पहला प्रयोग है, अगर इसमें असफल हो गये तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। उसी समय श्री केसरीमलजी ने निश्चित कर लिया कि विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था अब मुझे अपने हाथ में ले लेनी चाहिए। व्यापार करना तो आपने पहले ही छोड़ दिया था, इसलिए वि० सं० २००१ की माघ पूर्णिमा से जीवन का शेष समय इसी काम में लगाने का दृढ़ निश्चय कर लिया और इस समय से ही आपके जीवन के दो लक्ष्य हो गये--आत्म-कल्याण और संस्था का विकास। कहा जाता है कि पारस जब लोहे को स्पर्श करता है तो लोहा भी स्वर्ण में बदल जाता है। पाँच छात्रों से आरम्भ हुई तेरापंथ समाज की यह प्रथम शिक्षण संस्था प्राथमिक शाला से उच्च प्राथमिक, सैकण्डरी, हायर सैकण्डरी और कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के रूप में पारसरूपी सुराणाजी के स्पर्श से जैन जगत् की स्वर्णिम धरोहर बन गयी है। कभी जो संस्था किराये के भवन में चलती थी, वह अब अपनी ही विशाल धरती पर भव्य अट्टालिकाओं में सुसंचालित है। स्कूल व कालेज के अलग-अलग भवन, छात्रावास, सभाभवन, भोजनशालाएँ, अतिथि भवन, औषधालय, स्टाफ क्वार्टर्स, कार्यालय, भण्डारगृह, उद्यान, खेल के मैदान, कूएँ, पानी के होज, बिजली, गाड़ी आदि से सम्पन्न यह संस्था 'श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ, राणावास' के नाम से भारत भर में प्रख्यात है । संस्था का बीज से बरगद के रूप में यह प्रसार ग्रन्थनायक के कर्मठ जीवन का परिपुष्ट प्रमाण है। __ संस्था के सौम्य और अनुशासित वातावरण को देखकर सहसा रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन का स्मरण हो आता है वस्तुतः सुराणाजी का यह प्रयास शान्ति निकेतन से कम भी नहीं है । नारी शिक्षा के प्रसार-प्रचार में भी आप अग्रणी रहे । आपकी सुलझी दृष्टि ने आपकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरदेवी को अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ की स्थापना के लिए प्रेरित किया। राणावास की यह संस्था भी अब मील का पत्थर बन चुकी है। राणावास जैसे छोटे से गाँव में विद्या की यह वल्लरी शिक्षा केन्द्र के रूप में इस तरह विकसित होकर फली-फूली कि मरुभूमि राणावास विद्याभूमि राणावास की अभिधा से अलंकृत हो गया। इसका एकमात्र श्रेय श्री सुराणाजी को ही है। इस सन्दर्भ में इसी ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में संस्था का विस्तृत इतिवृत्त द्रष्टव्य है। जगत-काकासा ___संस्था के विकास-कार्यों में आपकी सूक्ष्म पकड़ जन-जन को आपकी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी। आप संस्था के कार्य से जहाँ भी गये, वहाँ आप परिवार के वरिष्ठ सदस्य के रूप में घुल-मिल गये । संस्था के छात्र समुदाय के मध्य तो आप एक पिता और संरक्षक के रूप में समादृत एवं प्रिय बन गये। आपकी इसी लोकप्रियता ने आपको काकासा (Uncle) सम्बोधन प्रदान कर दिया । आप जन-जन और जगत् के काकासा हो गये। काकासा शब्द केसरीमलजी सुराणा का पर्यायवाची शब्द बन गया । राणावास गाँव ही नहीं और समस्त तेरापंथ ही नहीं अपितु इतर सम्प्रदायों व समाजों में भी आप काकासा के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो आपको नाम से नहीं अपितु काकासा सम्बोधन से जानते हैं । यह शब्द उच्चारित करते ही हमारे नयनों में श्री केसरीमलजी सुराणा की एक निश्चित वेशभूषायुक्त आकृति उभर कर आ जाती है । अर्थ-संग्रह : मरुभूमि के मालवीय विद्याभूमि राणावास में आज जो शैक्षणिक संसाधन और भव्य अट्टालिकायें आलोकित होती हैं, उसमें काकासा केसरीमलजी सुराणा के अनमोल स्वेद-कणों का बिम्ब प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। ये उत्तग भवन अचानक या एक दो साल में ही नहीं झुक गये। वि० सं० २००१ से आज तक आपने मदनमोहन मालवीय की तरह घर-घर जाकर पैसों की भीख मांगी है । एक-एक पैसे को एक-एक स्वर्ण मोहर मानकर प्राप्त किया है और खर्च किया है । आज इतनी विशाल इमारतें बन जाने के साथ-साथ संस्था का लगभग २२ लाख रुपयों का जो स्थायी कोष है, उसे संस्थापित करने में आपने लगभग एक लाख मील की यात्रा की है। महीनों राणावास से दूर रहकर कश्मीर से कन्याकुमारी और राजस्थान से आसाम तक को आपने स्पर्श किया है। इस हेतु आपको पद यात्रा भी करनी पड़ी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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