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________________ नदर्शन में मानववादी चिन्तन जैन दर्शन में जीव या आत्मा की सत्ता स्वीकार की गई है। उसके जीव और बद्धजीव जिन्होंने बल्य को हासिल कर लिया, वे मुक्त जीव आबद्ध हैं, वे बद्धजीव हैं। बद्धजीव के दो भेद हैं--त्रस और स्थावर जीव । स्थावर-जीवों में केवल स्पर्श-ज्ञान की सत्ता होती है । स्थावर-जीव में शरीर जीवों में न्यूनाधिक विकास की अवस्था पायी जाती है। उनमें भी क्रमश: जैसे घोषा, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य, पशु व पक्षी आदि । ४. मानव और उसकी जीवात्मा 1 अनुसार आत्मा के दो भेद हैं-मुक्तजो अभी तक सांसारिक आसक्ति में त्रस जीवों में क्रियाशीलता होती हैं, जबकि का पूर्ण विकास नहीं होता है, जबकि सदो, तीन, चार व पाँच इन्द्रिय जीव होते हैं, है जैन दर्शन में चैतन्य द्रव्य को जीव या आत्मा की संज्ञा दी गयी है ।' संसार के प्रत्येक जीव में चैतन्य की सत्ता उपलब्ध होती है । प्रत्येक जीव स्वभावतः अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सामर्थ्य आदि अलौकिक गुणों से सम्पन्न होता है । सभी जीवों में चैतन्य विद्यमान रहता है, किन्तु प्रत्येक जीव में उसकी मात्रा व विकास भिन्न-भिन्न होता है । सिद्ध आत्माओं में सबसे अधिक चैतन्य की सत्ता रहती है। सिद्ध जीव सर्वश्रेष्ठ व पूर्णज्ञानी होते हैं। सबसे निम्न एकेन्द्रिय जीव होते हैं, वे क्षिति, जल, अग्नि, व वायु में रहते हैं। इन जीवों में चैतन्य सीमित या अस्पष्ट होता है। स जीवों में दो से पाँच तक इन्द्रियाँ होती हैं, जैसे कृमि, पिपीलिका, भ्रमर व मनुष्य आदि 1 ३२१ जीव शुभाशुभ कर्मों का कर्ता एवं फल का भोक्ता है। सुख-दुःख का भोक्ता होता है वह स्वयं को प्रका शित करता व परिणामी है । शरीर से पूर्णतया पृथक् है, चैतन्य ही उसका बड़ा सबसे प्रमाण है । वह दीपक के प्रकाश की भांति संकोच व विकासशील प्रवृत्ति वाला है। हस्ती के शरीर में स्थित जीव विशालकाय एवं चींटी में रहने वाला अल्पकाय होता है । ५. मानव और कैवल्य जीव व पुद्गल का संयोग बन्धन और वियोग मोक्ष की संज्ञा है । 3 जीव का स्वरूप नित्य शुद्ध है । वह ऊर्ध्वगमन करता है, यह उसका स्वभाव है। किन्तु कर्मों के आवरण के कारण वह ऊपर गति न करके, इस संसार में ही रह जाता है । परन्तु ज्यों-ज्यों अज्ञान के आवरण ( क्रोध, मान व अभिमान) को त्रिरत्न द्वारा नष्ट कर देता है, तभी जीव का ऊर्ध्वगमन होता है। वह जीव उठकर सिद्ध-शिला को प्राप्त कर लेता है। यही जीव की कैवल्य अवस्था है । अतः जीव का पुद्गल से अलग होना ही मोक्ष है। इन पुद्गलों का वियोग त्रि-रत्न व पंचमहाव्रत की सहायता से ही संभव है। Jain Education International ६. मानव और जड़वाद जैन दर्शन में जड़वाद का महत्वपूर्ण स्थान है जिसे अजीववाद भी कहते हैं। इसके निम्न पाँच वर्ग हैं-पुद्गल, आकाश, काल, धर्म व अधर्म । १. चैतन्यलक्षणो जीवः । षड्-दर्शन समुच्चय, कारिका ४९ २. भारतीय चिन्तन का इतिहास, डा० श्रीकृष्ण ओझा, जयपुर, ११७७, ०५५ ३. मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतुनां निरोधेऽभिनवकर्माभावा निर्जरा हेतुसन्निधानेनाजितस्य कर्माणो निरसनादात्यन्तिक्कर्ममोक्षणं मोक्षः । ४. अबोधात्मस्त्वजीवः । सर्वदर्शनसंग्रह, माधव, वाराणसी, १६७८, पृ० १४३ । सर्वदर्शनसंग्रह, माधव, वाराणसी, १६७८, पृ० १६७. For Private & Personal Use Only B www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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