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________________ ३०६ कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ......................................................................... करने वाले का अनुमोदन करना भी साध्य के अनुकूल नहीं हो सकता ; करना, करवाना व अनुमोदन करना तीनों अभिन्न हैं। (क) जिस कार्य के करने में धर्म होता है तो उसके करवाने व अनुमोदन में भी धर्म है। ऐसा नहीं हो सकता कि करने में धर्म व करवाने व अनुमोदन करने में धर्म नहीं। (ख) जिस कार्य के करने में धर्म नहीं उसके करवाने व अनुमोदन में भी धर्म नहीं होता है । अहिंसा का पालन करना धर्म है, करवाना धर्म है और उसके पालन का अनुमोदन करना भी धर्म है। कुछ लोग कहते हैं-म रते हुए प्राणियों की रक्षा करना धर्म है। आचार्य भिक्ष ने कहा-धर्म का सम्बन्ध जीवन या मृत्यु से नहीं है। उनका सम्बन्ध संयम से है, त्याग से है। आत्मा के ऊँचा उठने से है। आचार्य भिक्ष ने कहा-किसी हिसक को उपदेश देकर उसे हिंसा से बचाना धर्म है । दबाव या प्रलोभन के बल से किसी को हिंसा से रोका तो वह आत्मधर्म नहीं है। चींटी चल रही है, हमने अपने पैर को हिंसा से बचने के लिये ऊँचा उठाया, हम हिमा से बच गये, इधर चींटी भी बच गई। धर्म हम हिंसा से बचे उसी में है । चींटी बची वह धर्म है तो दूसरे क्षण चींटी को चिड़िया ने मार दिया तो क्या हमारी दया मर गई ? हमारी दया हमारी वृत्तियों के साथ जुड़ी हुई है. चींटी के शरीर के साथ नहीं। यह आनुसंगिक परिणति है, सहज रूप में होती है। ३. आचार्य भिक्षु ने भगवान की आज्ञा के मानदण्ड से क्रियामात्र को मापा । भगवान् की आज्ञा जिस कार्य में है, मात्र उसी कार्य में धर्म है; क्योंकि जिस कार्य की भगवान की आज्ञा है, मुनि भी उस कार्य को कर सकता है और करा भी सकता है । उस कार्य का अनुमोदन भी कर सकता है। भगवान् की आज्ञा हमेशा ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप की वृद्धि के लिये ही होती है। शरीर-रक्षा और परिग्रह वृद्धि के लिये कभी भगवान् की आज्ञा नहीं होती। क्योंकि वह जिस कार्य का अनुमोदन नहीं कर सकता तो उसे कर भी नहीं सकता, करवा भी नहीं सकता। संयमी असंयम व उसके साधनों का अनुमोदन नहीं कर सकता, इसलिए असंयम धर्म नहीं है। मुनि संयम व उसके साधनों का अनुमोदन कर सकता है, इसलिए संयम ही धर्म है। दया की विशेष मीमांसा करते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा-- जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंता मत जाण । मारणवाला ने हिसा कही, नहीं मारे हो ते दया गुण खाण ॥ जीव अपने आयुष्य-बल से जीता है, वह अहिंसा या दया नहीं है। कोई जीव स्वयं का आयुष्य क्षीण होने से मरता है, वह हिंसा नहीं है। मारने की प्रवृत्ति हिंसा है और न मारने की प्रवृत्ति का नाम दया है, अहिंसा है। उन्होंने दृष्टान्त देते हुए कहा--किसी ने गाजर खाने का त्याग लिया, अब गाजर मालन के टोकरे में बच गई, वह धर्म है या त्याग किया वह धर्म है ? अगर गाजर बची वही धर्म है ? तब तो किसी ने खरीदकर गाजर को खा लिया, क्या दया खत्म हो गई ? दया का सम्बन्ध गाजर के साथ नहीं आत्मा के साथ है। जो क्रिया किसी जीव को मात्र जिलाने के लिये होती है उसमें मोह और हिंसा की सम्भावना बनी ही रहती है। और जो क्रिया अपनी जीवनमुक्ति के लिए होती है वह संयम में परिणत हो जाती है। ५. आचार्य भिक्षु ने वैचारिक क्रान्ति के अन्तर्गत और भी कई सूत्र दिये जिनमें प्रमुख ये हैं--- (१) भगवान की आज्ञा में धर्म है, आज्ञा के बाहर नहीं। (२) धर्म त्याग में है, भोग में नहीं। (३) धर्म हृदय परिवर्तन में है दबाव में नहीं, प्रलोभन में नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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