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________________ ० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतर्थ खण्ड थे तथा जिनमें अधिक कषाय उत्पन्न हो ऐसे तीव्रकर्म करते थे एवं यन्त्र (चौपड़, सतरंज वगैरह) से द्यूतक्रीड़ा करते थे। ८. कुछ लिंग धारणकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा संयम रूप नित्यकर्मों का आचरण करते हुए मन में दुःखी होते थे, कुन्दकुन्द ने इन्हें तथा उपर्युक्त सभी को नरकगामी बतलाया है। ६. कुछ श्रमणलिंग धारण कर नृत्य करते थे, गाना गाते थे, वाद्य बजाते थे, परिग्रह का संग्रह करते थे अथवा उसमें ममत्व रखते थे, परिग्रह की रक्षा करते थे, रक्षा हेतु अत्यधिक प्रयत्न करते थे तथा उसके लिए निरन्तर आतध्यान करते थे,४ भोजन में रसलोलुप होते हुए कन्दर्पादि में वर्तते थे तथा मायामयी आचरण करते थे। कुछ श्रमण ईर्यापथ का पालन न कर दौड़ते हुए चलते थे, उछलते थे, गिर पड़ते थे, पृथ्वी को खोदते हुए चलते थे, धान्य, पृथ्वी तथा वृक्षों के समूह का छेदन करते थे, कुछ दर्शन और ज्ञान से हीन श्रमण नित्य महिलावर्ग के प्रति स्वयं राग रखते थे तथा जो निर्दोष थे उन्हें दोष लगाते थे। कुछ मुनियों की क्रिया और गुरुओं के प्रति विनय से रहित थे तथा प्रव्रज्याहीन गृहस्य तथा शिष्यों के प्रति अत्यधिक स्नेह रखते थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन सभी को तिर्यग्योनि कहा है, उनकी दृष्टि में वे वास्तव में श्रमण नहीं थे। १०. आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में जो आहार के निमित्त दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह कर उसे खाता है तथा आहार के निमित्त अन्य से ईर्ष्या करता है, वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है। जो बिना दिया हुआ दान लेता है; परोक्ष में दूसरे की निन्दा करता है, जिनलिंग को धारण करता हुआ वह श्रमण चोर के समान है।" ११. जो महिलावर्ग में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शिक्षा दे; विश्वास उत्पन्न कर उनमें प्रवृत्ति करता है, वह पार्श्वस्थ (भ्रष्ट मुनि) से भी निकृष्ट है।१२ जो व्यभिचारिणी स्त्री के घर आहार लेता है, नित्य उसकी स्तुति करता हुआ पिण्डपोषण करता है, वह अज्ञानी है, भावविनष्ट है, श्रमण नहीं है। अतः श्रमणधर्मी को जानना चाहिए कि श्रमणलिंग धर्मसहित होता है, लिंग धारण करने मात्र से ही धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती है। अत: भावधर्म को जानना चाहिए, केवल लिगमात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। यदि लिंग रूप धारण कर भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र को उपधान रूप धारण न किया, केवल आत्तध्यान ही किया तो ऐसे व्यक्ति का अनन्त संसार होता है। छेदविहीन श्रमण व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोच, आवश्यक, अवेलपना, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े-खड़े भोजन करना और एक बार आहार-ये श्रमणों के मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं, उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक २. ६. वही, १५. ७. वही, १६. ५ १. चोराण लाउराण य जुद्ध विवादं च तिव्वकम्मेहिं । जंतेण दिवमाणो गच्छदि लिंगी णरयवासं ॥-लिंगपाहुड, १०. वही, ११. ३. वही, ४. ४. वही, ५. ५. वही, १२. ८. वही, १७. ९. वही, १८. १०. धावदिपिंडणिमित्तं कलह काऊण भुंजदे पिंडं। अवरूप सूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो ॥--वही, १३. ११. गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्ख दूसेहिं।। जिलिंगं धारतो चोरेण व होइ सो समणो॥-वही, १४. १२. वही, २०. १३. वही, २. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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