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________________ . २८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................................................ व्यवहार का अर्थ छलना तथा प्रवंचना नहीं है। उसका अर्थ है-यथार्थ कार्य को भी उस पर अपने बुद्धिविवेक तथा कला का अवलेप लगाकर प्रस्तुत करना । व्यवहार जीवन का कलात्मक पक्ष है। दूसरे शब्दों में, कलात्मक जीवन-पद्धति का नाम ही व्यवहार है। सत्य और शिव को भी जैसे सौन्दर्य अपेक्षित है, वैसे ही यथार्थ-क्रिया भी कलात्मकता के बिना अधूरापन लिए रहती है । उसकी पूर्ति व्यवहार करता है। ___ व्यक्ति जहाँ अकेला होता है, वहाँ व्यवहार-पथ के अनुगमन की विशेष आवश्यकता नहीं रहती । पर जहाँ समाज होता है, वहाँ परस्परता होती है। जहाँ परस्परता होती है, वहाँ व्यवहार अत्यन्त अपेक्षित हो जाता है। व्यवहार पक्ष की उपादेयता को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने कितना सुन्दर पद्य लिखा है-- काव्यं करोतु परिजल्पतु संस्कृतं वा, सर्वाकला: समधिगच्छतु वा यथेच्छम् । लोकस्थितिं यदि न वेत्ति यथानुरूपां, सर्वस्य मूर्खनिकरस्य स चक्रवर्ती ।। प्रकाण्ड पाण्डित्य प्राप्त व्यक्ति भी यदि लोकव्यवहार से अनभिज्ञ है तो वह मूर्ख-चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित होता है। यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नाचरणीयम्- इस पंक्ति ने तो लोक व्यवहार को इतना महत्त्व दे दिया है कि जिस कार्य को अपनी दृष्टि शुद्ध मानती है, तथापि यदि वह लोक-विरुद्ध है, तो उसका आचरण मत करो । व्यवहार-कुशल व्यक्ति जहाँ पग-पग पर अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त करता रहता है, वहाँ व्यवहार से परे रहने वाले को कदम-कदम पर असफलता का मुंह देखना पड़ता है। इसीलिए विद्वान् लेखक की यह पंक्ति कितनी मार्मिक है कि 'जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है, अव्यावहारिक होना' । वाचक उमास्वाति ने इसी हार्द को प्रस्तुत करते हुए अपनी शिक्षात्मक रचना 'प्रशमरति-प्रकरणम्' में लिखा है लोकः सत्त्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्ध कार्य, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥ निश्चय अदृश्य होता है, वह व्यवहार के द्वारा गम्य होता है। हमारी किसी के साथ कितनी ही सद्भावना क्यों न हो ? हमारा अन्तःकरण कितना ही विशुद्ध क्यों न हो? पर जब तक वह व्यवहार में समवतरित नहीं होता, तब तक उसकी सच्चाई में कम ही विश्वास होता है। व्यवहार की इस साध्य-साधकता तथा उपादेयता को दृष्टिगत रखते हुए भगवान महावीर ने साधक के लिए स्थान-स्थान पर उसकी उपयोगिता बताई है। यद्यपि आपने भी साधक के लिए दो साधना-क्रम प्रस्तुत किये हैंजिनकल्पी तथा स्थविरकल्पी । जिनकल्पी सहायनिरपेक्ष एकाकी जीवन-यापन करते हैं, उनकी साधना विशिष्ट कोटि की होती है, अत: वे व्यवहारातीत तथा कल्पातीत हैं । स्थविरकल्पी संघीय जीवन यापन करते हैं। उनके लिए व्यवहार की भी अपनी सीमा तक आवश्यकता होती है। __आगे की पंक्तियों में भगवान् महावीर के व्यावहारिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जायगा। चिन्तन तथा भावनाएँ असीम हैं। उनका व्यास न हो। समास के लिए दशवैकालिक सूत्र ही मुख्य आधार रहेगा। ओदन-पाक जानने के लिए दो चावलों की परीक्षा अपर्याप्त नहीं रह जाती। भगवान महावीर ने अनेकों ऐसे विधि तथा निषेधों के संकेत दिये हैं, जिनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष सूक्ष्म स्थल दृष्टि से हिंसा आदि से बचने का ही दृष्टिकोण रहा है। पर कहीं ऐसे विधान व निषेध हैं, जहाँ हिंसा आदि से बचने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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