SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 651
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड साधना की ये चार भूमिकाएँ थीं। जो साधक अपने को परिहारविशुद्धि, यथालं दिक, जिनकल्पिक आदि जिस साधना के योग्य पाता है, वह उसी साधना में अपने को लगा देता है। वस्त्रों का सम्बन्ध साधना के साथ सयुक्त था, इच्छानुसार उनका व्यवहार नहीं होता था। लक्ष्य सब का अचेलता की ओर था। स्थानांग सूत्र में पांच कारणों से अचेलता को प्रशस्त माना है । अचेलता से तप और इन्द्रियनिग्रह होता है । वस्त्रों की अल्पता से आन्तरिक वृत्तियों में लाघव आता है। बाह्य परिग्रह का प्रतिबिम्ब अन्तर् में भी पड़ता है। वस्त्रों के प्रति आवश्यकता जितनी कम होगी, उतना ही ममत्व का विसर्जन होगा, आन्तरिक निस्संगता बढ़ेगी। यह सच है कि सब की शारीरिक शक्ति समान नहीं होती, इसलिए प्रारम्भ में यथाशक्ति वस्त्रों का त्याग करता है। जो तरुण और स्वस्थ होते हैं वे युवक साधु एक वस्त्र ही रखते हैं, ग्लान या प्रौढ़ साधु तीन वस्त्र रखते हैं। प्रथम भूमिका के किसी साधक को साधनाकाल में कोई रोग उत्पन्न हो जाए और इस बिन्दु तक पहुँच जाए कि उसके लिए असह्य बन जाए, दीर्घ काल तक उस स्थिति में चलने में अपने को समर्थ देखे तो वह संयम की सुरक्षा के लिए वेहासन और गृद्धपृष्ठ आपवादिक मरण भी कर सकता है। ऐसी स्थिति में वैसा करना उसके लिए असम्मत नहीं है। किसी साधक के साधना काल में ऐसा प्रसंग आ जाए कि स्त्री उसे घेर ले और उसके ब्रह्मचर्य को खण्डित करने के लिए तत्पर हो जाए, उस समय यदि वह अपने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए आपवादिक मरण का सहारा लेता है तो वह असम्मत नहीं है। ऐसे आपवादिक मरण के अनेक साधन निर्दिष्ट हैं विषभक्षण, फाँसी आदि-आदि। सामान्य स्थिति में यह मरण स्वीकार्य नहीं। दूसरी भूमिका में साधना करने वाले जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धि या यथालंदिक प्रतिमा-स्वीकृत मुनि होते हैं । प्रतिमा-स्वीकृत स्थविर मुनि इस साधना भूमि में दो वस्त्र-एक सूत का और एक ऊन का तथा एक पात्र रखता है । ग्रीष्म ऋतु में यदि सामर्थ्य हो तो साधक अचेल हो सकता है अन्यथा वह एक वस्त्र रख सकता है। साधना-काल में किसी मुनि का ऐसा अध्यवसाय हो कि मैं रोग से स्पृष्ट हूँ। उससे मेरी शारीरिक शक्ति क्षीण हो गई है, अतः मैं भिक्षा लाने में असमर्थ हूँ। उस समय कोई गृहस्थ उसके मुख से सुनकर या उसके भावों को समझकर आहार आदि लाकर दे तो वह निषेध कर दे कि ऐसा सदोष आहार मेरे लिए अग्राह्य है। यदि कोई नीरोग सार्मिक साधक (समान साधना करने वाला) उसकी सेवा करे तो वह उसे स्वीकार कर सकता है और स्वस्थ होकर वापस उसकी वैयावृत्त्य कर सकता है। १. जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिर संघयणे से एगं वत्थं धारेज्जा नो बीयं । --आचारांग, २।५।१।३६४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy