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________________ २७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अनुयोग शब्द की शल्य चिकित्सा करते हुए प्राचीन ग्रन्थों में आया है- "अणु-ओयणमणुयोगो" अनुयोजन को अनुयोग कहा है। अनुयोजन यहाँ जोड़ने से संयुक्त करने के अर्थ में आया है जिससे एक दूसरे को सम्बन्धित किया जा सके। इसी को स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है- "युज्यते संबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योग: " भगवद् कथन से संयोजित करता है अतः उसको अनुयोग कहा गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश में ऐसा भी अर्थ मिलता है - "अणु सूत्रं महानर्थस्ततो महतोर्थस्याणुनासूत्रेण योगो अनुयोग : " छोटे सूत्र में महान् अर्थ का योग करने को अनुयोग कहा गया है— अनु - योग । अनु उपसर्ग है। योग भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । जैनसिद्धान्तदीपिका' में मन, वचन, काया के व्यापार को योग कहा है । इस प्रकार विभिन्न अर्थों का बोध होता है । यह उचित भी है क्योंकि शब्द में अर्थ प्रकट करने का सामर्थ्य नहीं होता, वह तो केवल प्रतीक मात्र है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों से गुजरने से शब्दों के अर्थों में ह्रास और विकास होता है तब ही आचायों ने उचित ही नहा है शब्द की परिभाषा करते समय हमें वह वहाँ, किस प्रकार और किस स्थिति में प्रयुक्त हुआ है, कौन सी धातु प्रत्यय आदि उसकी निष्पत्ति के निमित्त है जानना होगा राय ही हम उसके हार्द को पकड़ सकते हैं। अनुयोग जैन पारिभाषिक शब्द है— सूप और अर्थ का उचित सम्बन्ध अनुयोग है या हम यों कह सकते हैं अर्हन् वाणी के अनुकूल जो भी कथन है वह अनुयोग है अतः यथार्थ समस्त वाङ्मय अनुयोग के अन्तर्निहित हो जाता है। जनागमों में अनुयोग के अनेकों प्रभेद मिलते हैं नंदी में अनुयोग के दो विभाग है वहां दृष्टिवाद के पाँच विभागों में अनुयोग का उल्लेख है । प्रश्न उपस्थित किया गया है - "कोऽयं मणु योगः " समाधान में वह दो प्रकार का है— १. मूल प्रथमानुयोग २. गंडिकानुयोग मूल प्रथमानुयोग मूल प्रथमानुयोग क्या है ? आचार्य का उत्तर प्राप्त होता है इसमें अर्हन् भगवान् को सम्यक्त्व प्राप्ति के भव से पूर्वभव, देवलोक, गमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्यश्री, प्रवज्या, तप, भक्त, केवलज्ञानोत्पत्ति, तीर्थप्रर्वतन, संघयन, संस्थान, ऊँचाई, वर्ण, विभाग, शिष्य, गण, गणधर, साधु-साध्वी प्रतिनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, केवली, मनः पर्ववज्ञानी अवधिज्ञानी सम्यग्ज्ञानी, बुतज्ञानी, वादी, अनुत्तर विमान में गए हुए, जितने सिद्ध हुए उनका, पादपोपअज्ञान रज से विप्रमुक्त हो जो मुनिवर प्रकार के अन्यभाव जो अनुयोग में कथित . गमन अनशन को प्राप्तकर जो जहाँ जितने भक्तों को छोड़कर अन्तकृत हुए अनुत्तर सिद्धि मार्ग को प्राप्त हुए हैं उनका वर्णन है। इसके अतिरिक्त इन्हीं है वह प्रथमानुयोग है अर्थात् सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्ति से तीर्थंकर तक के भवों का जिसमें वर्णन है वह मूल प्रथमानुयोग है। संडिकानुयोग Jain Education International ifter का अर्थ है समान वक्तव्यता से अर्थाधिकार का अनुसरण करने वाली वाक्य पद्धति । उसका अनु १. चतुर्थप्रकाश, सू० २६. २. श्रीमलयगिरीया नंदीवृत्ति: पृ० २३५, परिकम्मे, सुत्ताई, पुव्वगए, अणुयोगे चुलिया । ३. श्रीनंदीचूर्णी, पृ० ५८ मूल पढमाणुयोगे गंडियाणुयोगे । ४. इह मूल भावस्तु तीर्थंकरः तस्स प्रथमं पूर्वभवादि अथवा मूलस्य पढमा भवाणुयोगे एत्थगरस्स अतीत भव परियाय परिसत्तई भाणियव्वा । श्रीनंदीवृत्तिचूर्णी, ०. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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