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________________ अपरिग्रहवाद आर्थिक समता का आधार डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' [प्राध्यापक, जैन विश्वभारती, लाडनूं (राज०)] भगवान् महावीर ने लोक-कल्याण के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच व्रतों के पालन पर विशेष बल दिया। इन पांचों का हम चाहे जो भी नाम दे दें सभी में अहिंसा व्याप्त है और अपरिग्रह को अहिंसा का मेरुदण्ड माना गया है। अपरिग्रह को बिना अपनाये अहिंसा का सम्यक् आचरण सम्भव नहीं । बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की हिंसा के त्याग से ही पूर्ण अहिंसा का पालन किया जा सकता है। इसलिए भगवान् महावीर ने बाहर की हिंसा से बचने के लिए 'प्रेम तत्व' दिया तो दूसरी ओर भीतरी हिसा को रोकने के लिए 'अपरिग्रह तत्त्व' । वैसे अन्तरंग और भावनात्मक दृष्टि से अपरिग्रह को भले ही अहिंसा में गर्भित मान लें, किन्तु अहिंसा की परिपूर्णता तथा निःशल्य होकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए अपरिग्रह को प्रारम्भ से ही पृथक् व्रत के रूप में स्वीकार किया गया । कार्य क्षेत्र तथा बाह्य व्यवहार में भी भिन्नता के कारण दोनों का पृथक्-पृथक् रूप में प्रति पादन आवश्यक था । अपरिग्रह शब्द परिग्रह के निषेध का सूचक है। परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है - "परि समन्तात् मोह बुद्धया गृह्यते यः स परिग्रहः" अर्थात् मोह (ममत्व ) बुद्धि के द्वारा जो ( पदार्थादि ) चारों ओर से ग्रहण किया जाए वह परिग्रह है। आचार्य उमास्वामि ने मूर्च्छा को परिग्रह कहा है। वस्तुतः मन और इन्द्रियों की प्रकृति चंचल है। मन में अनन्त संकल्प-विकल्प जन्म लेते रहते हैं जिनकी दौड़ असीम होती है और ये सदा नित-नवीन इच्छाओं को जन्म देता रहता है। साथ ही देखा जाय तो ये इच्छायें ही परिग्रह का मूल कारण है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य के मन में सर्वप्रथम अनधिकृत सामग्री प्राप्ति की इच्छा होती है-इसे हम इच्छारूप परिग्रह कह सकते हैं। इसके बाद उसके संग्रह की दिशा में प्रवृत्ति होती है - यह संग्रहरूप परिग्रह है और इसके साथ ही साथ संग्रहीत वस्तुओं पर ममत्व स्थापित हो जाता है तब यही ममत्व आसक्ति का रूप धारण कर लेता है। ममत्व जितना पना होता है, संग्रहवृत्ति उतनी ही बढ़ती जाती है। कोई भी व्यक्ति कितना ही दरिद्र भिखारी या बाह्य रूप से अपरिग्रही हो, ममत्व भाव से युक्त होने पर वह अन्दर से उतना ही महापरिग्रही हो सकता है। इसके ठीक विपरीत ममत्वभाव से रहित अनासक्त वृत्तिवाला मनुष्य अतुल वैभव के बीच भी अपरिग्रह अणुव्रत का धारक हो सकता है । क्योंकि अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं अपितु किसी वस्तु में निहित ममत्व (मूर्च्छा) के त्याग का नाम है। यदि वस्तु के अनावश्यक संग्रह को रोकना है तो उस वस्तु के त्याग से पूर्व उस उस वस्तु में निहित ममत्व का त्याग आवश्यक होगा । यथार्थतः व्यक्ति की आकांक्षाएँ आकाश की भाँति अनन्त होती है, ज्यों-ज्यों इनकी पूर्ति होने लगती है वैसे ही लोभ और मोह बढ़ने लगते हैं और वह अनैतिक रूप से धन संग्रह में संलग्न हो जाता है। मोह-बुद्धि के कारण वह इसी में अपनी सम्पूर्ण सफलता और सुख मान बैठता है फिर उसे यह भाव जाग्रत नहीं होता कि मेरे इस क्षणिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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