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________________ २५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................................... मिलकर एक नयी वस्तु का निर्माण करते हैं तो उसे यौगिक कहते हैं। जैसे-H+0=पानी । तथा जो नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते वे मिश्रण कहलाते हैं । जैसे----बारूद । पुद्गल द्रव्य संख्या में अनन्तानन्त हैं। ये पूरे लोकाकाश में उपस्थित हैं। इनका आकार अवक्तव्य है। धर्म तथा अधर्म द्रव्य ये दोनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं-आकाशादेकद्रव्याणि तथा प्रत्येक द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है। धर्म द्रव्य उन द्रव्यों की गति में निमित्त होता है जो अपनी योग्यता से चले । चलने वाले द्रव्य केवल दो हैंजीव एवं पुद्गल । “गति स्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकार: ।" यद्यपि आचार्य उमास्वामी ने इस सूत्र में यह नहीं बतलाया कि यह दोनों किन का उपकार करते हैं, परन्तु इसी अध्याय के प्रारम्भ में यह कहा है कि जीव और पुद्गल को छोड़ कर सब द्रव्य निष्क्रिय हैं--"निष्क्रियाणि च।" इससे स्पष्ट है कि आचार्य का अभिप्राय जीव और पुद्गल के चलने तथा ठहरने में इन द्रव्यों के योगदान बतलाने का है। धर्म द्रव्य स्वयं न चलता हुआ जो स्वत: चलते हैं उनके चलने में अप्रेरक निमित्त है। लेकिन किसी को चलने हेतु प्रेरित नहीं करता । तथा अधर्म द्रव्य स्वयं स्थिर रहता हुआ जो स्वतः स्थिर होवे उनकी स्थिति में निमित्त होता है, किसी को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता। जैसे-यदि कोई जीव या पुद्गल चल रहा है तो अधर्म द्रव्य उसे रोक नहीं सकता तथा यदि कोई जीव या पुद्गल स्थिर है तो धर्म द्रव्य उसे चला नहीं सकता। आधुनिक विज्ञान भी धर्म तथा अधर्म द्रव्य के सदृश ईथर तथा नॉन-ईथर दो शक्तियाँ मानता है। लेकिन अपनी परिभाषा के अनुसार द्रव्य नहीं मानता। आकाश यह भी पूर्व रूप में एक द्रव्य है "आ आकाशादेकद्रव्याणि।" इसमें जहाँ तक धर्म तथा अधर्म द्रव्य है वहाँ तक लोकाकाश है और उसके बाहर चारों ओर अनन्त अलोकाकाश है। आकाश अपने स्वरूप में ही प्रतिष्ठित है तथा दूसरे द्रव्यों को स्थान देता है—“आकाशस्यावगाहः ।" काल द्रव्य : काल को सभी दार्शनिक द्रव्य मानते हैं । जैन दर्शन भी इसे द्रव्य स्वीकार करता है। काल दो प्रकार का है १-निश्चयकाल एवं २–व्यवहारकाल । निश्चयकाल "वर्तनापरिणामक्रियापरत्त्वापरत्त्वे च कालस्य" अर्थात् सभी द्रव्यों के वर्तन (अस्तित्व), परिगमन क्रिया तथा ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि के व्यवहार में कारण होता है । और व्यवहार काल उसे कहते हैं जो घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि का विभाजन करता है। निश्चय काल जहाँ असंख्यात कालाणु रूप है वहीं व्यवहार काल भूत, भविष्यत्, वर्तमान तथा दिन-रात, पक्ष, महीना, वर्ष आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। काल की संख्या असंख्यात है । एक-एक आकाश प्रदेश पर एक-एक कालाणु की स्थिति है। - १. (क) "अपरोऽस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रनिति काल लिङ्गानि"-वै० ६ । (ख) जन्यानां जनक कालो जगतामाश्रयो मतः । परापरत्वधी हेतुः क्षणादिस्यादुपाधितः ।।--मुक्तावली (ग) “कालश्चेत्येके" तत्त्वार्थसूत्र (श्वेताम्बर पाठ) (घ) “कालश्च" तत्त्वार्थसूत्र (दिगम्बर पाठ) 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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