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________________ . - . - . -. -. -. -. - . -. -. - . -. -. - . -. -. - . -. .-.-. -. -. -. -.-. -. -. द्रव्य : एक अनुचिन्तन ॥ वैद्य श्री राजेन्द्रकुमार जैन, आयुर्वेदाचार्य द्वारा डॉ० दरवारीलाल कोठिया (चमेली कुटीर, डुमराव कालोनी, अस्सी, वाराणसी (उ० प्र०)] आज तक जितने भी चिन्तन या विचार सामने आये हैं, उनकी विषयवस्तु यह जगत् या जगत् से जुड़ी हुई कोई वस्तु रही है। प्राचीन काल से ही विचारकों ने जगत् का अध्ययन कर सर्वसामान्य के सामने संसार एवं मोक्ष का स्वरूप उपस्थित किया। यह जगत द्रव्यों का समूह है, यह निर्विवाद सत्य है। इसका अध्ययन चिन्तकों ने अपने-अपने ढंग से किया है। 'द्' धातु से 'द्रव्य' शब्द बना है। ‘गुणान् द्रवन्ति' या 'गुणः द्र यन्ते' इन दो व्युत्पत्तियों से द्रव्य का निरूपण किया जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो गुणों सहित है, वह द्रव्य है । आधुनिक समय में द्रव्य को 'सब्सटेन्स' (Substance) शब्द से जाना जा सकता है। द्रव्य के जो लक्षण विभिन्न विचारकों ने दिये हैं, वे लगभग मिलते-जुलते हैं । यथा : १. "यंत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायियत् । तद् द्रव्यं ....।----चरक २. "क्रिया गुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यम्..”—वै० सू० ३. "द्रव्य लक्षणं तु क्रियागुणवत् समवायिकारणम्...'.-सुश्रुत ४. “गुणवर्यवद् द्रव्यम्.......".---उमास्वामी, त० सू० ५॥३८ उपर्युक्त लक्षणों का सामान्य अर्थ यह है कि, जिसमें गुण और पर्याय रहें, वह द्रव्य है। लेकिन आचार्य उमास्वामी ने एक दूसरा लक्षण भी किया है। उन्होंने कहा है कि “सद् द्रव्य लक्षणम्" (त० सू० ५।२६) अर्थात् द्रव्य का लक्षण सत् (होना) है तथा सत् को भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्त सत् (त० सू० ५।३०) अर्थात् सत् वह है जिसमें उत्साद (नयी पर्याय की उत्पत्ति), व्यय (पुरानी पर्याय का नाश), तथा ध्रु वता (स्वभाव की स्थिरता) है, और अन्ततः ऐसा द्रव्य ही है। वैशेषिकों द्वारा प्रतिपादित द्रव्य का एक अन्य लक्षण है. "द्रव्यत्व जातिमत्वं द्रव्यत्वम्" । यह लक्षण निर्दोष न होने से आचार्य पूज्यपाद द्वारा समालोचित हुआ है। उन्होंने कहा है कि "द्रव्ययोगात् द्रव्यमिति चेत्, न, उभयासिद्धः । यथा दण्डदण्डिनोोगो भवति पृथक, सिद्धयोः न च द्रव्यद्रव्यत्वे पृथक सिद्ध स्तः ।" इसका अर्थ यह है कि जैसे दण्ड और दण्डी पुरुष पृथक सिद्ध हैं और उनका सम्बन्ध भी सिद्ध है उसी तरह द्रव्य-द्रव्यत्व पृथक सिद्ध नहीं है। यदि द्रव्यत्व के योग से द्रव्य कहलाता है तो वह द्रव्यत्व स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध होना चाहिये। लेकिन द्रव्य से द्रव्यत्व तथा द्रव्यत्व से द्रव्य पृथक सिद्ध नहीं है, अतः उनका सम्बन्ध भी सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में द्रव्यत्व के योग से द्रव्य का लक्षण मानना युक्त नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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