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________________ २४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिमन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ५. एकलठाणा : इसमें भी दिन में एक बार आहार करके त्याग किया जाता है, विशेषता यह है एकलठाणे में एक बार में ही खाने के लिए लिया जाता है। इसे सामान्यत: मौन रखकर ही किया जाता है। ६. नीबी : इसमें विगय के लेपमात्र का भी त्याग करना पड़ता है। छोंक दिया हुआ साग, चुपड़ा हुआ फुलका भी काम नहीं आ सकता। ७. आयंबिल : एक धान की बनी हुई बिना नमक, मिरच की वस्तु और पानी के अतिरिक्त त्याग करना पड़ता है। उपवास : पहले दिन के शाम से दूसरे दिन के लिए तिविहार या चौविहार त्याग करना। ६. अभिग्रह : अमुक संयोग मिले तो पारणा करूंगा नहीं तो अमुक समय तक नहीं करूंगा। इस प्रकार त्याग करना। १०. चरम पचखाण : एक मुहूर्त रहे तब चौविहार त्याग करना। दस पचखाण करते हुए सामान्यतः रात्रिभोजन का त्याग, सचित्त का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन करने की परम्परा है। अढाई सौ पचखाण-इन्हीं दस पचखाणों को पच्चीस गुणा करके करने से अढाई सौ पचखाण हो जाते हैं। २५ नोकारसी, २५ पोरसी, २५ दो पोरसी ऐसे दसों प्रत्याख्यान पच्चीस-पच्चीस करने से अढाई सौ हो जाते हैं । इसमें अढाई सौ दिन लगते हैं । अढाई सौ व्यक्ति मिलकर करें तो यह तप एक दिन में भी हो जाता हैं। पच्चीस-पच्चीस व्यक्तियों द्वारा दसों प्रत्याख्यानों को करने से एक दिन में ही इसे सम्पन्न किया जा सकता है। कर्मचूर तप-यह भी पारम्परिक तप है, इसमें सवा सौ उपवास, बेला बाबीस, तेला तेबीस, चोला चौदह, पंचोला तेरह, अठाई दो क्रमश: की जाती है। कर्मचूर में तपस्या के दिन तीन सौ पिचोतर होते हैं और पारणे के दिन एक सौ निन्याणु होते हैं। लड़ी तप- इस तप में तीर्थंकरों की संख्या को माध्यम मानकर एक से चौईस तक चढ़ा जाता है । पहले तीर्थकर का एक उपवास, दूसरे तीर्थंकर के दो उपवास, ऐसे चढ़ते-चढ़ते चौईसवें तीर्थकर के चौईस उपवास लड़ी बंध करने होते हैं, इसे लड़ी चढ़े ऐसा माना जाता है, उतरने का भी वैसा ही क्रम है । ऐसे विहरमान तीर्थंकरों का भी लड़ी तप किया जाता है । कई गणधरों का भी करते हैं। पखवास तप-इस तप में तिथि क्रम से उतने उपवास उसी तिथि को किये जाते हैं। जैसे-एकम का एक उपवास एकम की तिथि को ही किया जाता है । दूज के दो उपवास वदी सुदी दूज को ही किये जाते हैं। इसी प्रकार चढ़ते-चढ़ते अमावस और पूर्णिमा के पन्द्रह उपवास कर इसे सम्पन्न किया जाता है। इसमें पाँच वर्ष सात महिने लग जाते हैं। प्रायः इसका प्रारम्भ भाद्रपद वदी १ किया जाता है और छठे वर्ष की होली की पूर्णिमा पर उपवास करके सम्पन्न किया जाता है। सोलियो-संवत्सरी से सोलह दिन पूर्व इसे प्रारम्भ किया जाता है, एक दिन उपवास और पारणे के दिन बीयासन (दो बार) से अधिक भोजन नहीं करना। इस तप वहन के समय ब्रह्मचर्य का पालन, सचित्तमात्र का त्याग और रात्रि चऊविहार करना अनिवार्य है। चूड़ा तप-आगे सुहागिन बहनों को चूड़ा पहनना अनिवार्य था। दोनों भुजाओं पर हाथी दाँत का बना हुआ चूड़ा हुआ करता था । एक तरफ के चूडे में लगभग बीस चूड़ियाँ हुआ करती थीं। बायें हाथ के चूड़े के नाम से जो तप किया जाता था, उसे चूड़ा तप कहा जाता था। इसमें बीस दिन एकान्तर किया जाता है और पारणे में बीयासन किया जाता है। बोरसा तप-यह भी बहनों के पहनने का एक आभूषण होता है, इसे प्रतीक बनाकर एकान्तर से चार ० ० - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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