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________________ ॐ ० २४६ DIIOIC कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड तपस्या के विभिन्न प्रकार तपस्या का कालमान वैसे एक दिन से लेकर बारह महिनों तक का है। जिनकी जितनी शारीरिक क्षमता हो उतनी ही तपस्या की जा सकती है। बारह महिनों की तपस्या भगवान ऋषभ के शासन काल में थी, बीच के तीर्थंकरों के साधना काल में आठ महिनों की उत्कृष्टतम तपस्या मानी जाती थी । अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के साधना काल में छः महिनों की उत्कृष्ट तपस्या रही। जिनकी जितनी क्षमता हो वह उतना ही तपस्या से अपने को लाभान्वित कर लेता है। जैन आगमों में इनके कुछ प्रकार बताये हैं, वे इस प्रकार हैं- में बेले बेले, तीसरे महिने । गुणरत्न संवत्सर तब इसमें पहिले महिने में एकान्तर उपवास, दूसरे महिने में तेले-तेले, ऐसे करते-करते सोलहवें महिने में सोलह-सोलह का तप किया जाता है सात दिन होते हैं तथा तिहीतर दिन पार के होते हैं, कुल चार सौ अस्सी दिनों का यह जाता है । इस तप में तपस्या के चारसो गुण रत्न संवत्सर तप कहा रत्नावली तप: इसमें उपवास बेला-तेला करके फिर आठ बेले किये जाते हैं। उसके बाद उपवास से शुरू करके सोलह तक तप किया जाता है, वहाँ फिर चौंतीस बेसे किये जाते हैं। बाद में सोलह पन्द्रह यों उतरते हुए उपवास तक आ जाते हैं, फिर आठ बेले किये जाते हैं, अन्त में तेला बेला और उपवास करके इसे सम्पन्न किया जाता है। इस रूप में चार सौ बहोत्तर दिन लगते हैं, इनमें अठासी दिन पारणे के होते हैं, शेष तीन सौ चौरासी दिन तप के होते हैं । पारणे की विधि भेद से इस तप की चार परिपाटी हो जाती हैं। एक विधि में पारणे में दूध, दही, घी आदि यि का सेवन किया जा सकता है । दूसरी विधि में विगय न लेना, सिर्फ लेप लगा हुआ ले सकते हैं । तीसरी विधि में लेप भी नहीं ले सकते, छाछ, राबड़ी, बिना बगार ( छोंक) की सब्जी, दाल आदि काम में ले सकते हैं । चौथी विधि में आयंबिल करना होता है । इस प्रकार पारणे के विधि भेद से इसके चार भेद हो जाते हैं । कनकावली तप - यह तप भी रत्नावली तप जैसा ही है, इसमें सिर्फ आठ-आठ बेले और बीच में चौंतीस बेले की जगह, तेले किये जाते हैं । इस क्रम से तप करने में सतरह मास और बारह दिन लगते हैं । उनमें अठासी पारणे आते हैं और चार सौ चौबीस दिन तप के हो जाते हैं । पारणे के भेद से इस तप की भी उपर्युक्त चार परिपाटी होती है। मुक्तावली तप- इसमें तपस्या करने वाला एक से सोलह तक चढ़ता है, किन्तु बीच में एक-एक उपवास करता हुआ चढ़ता है, जैसे—बेला करके पारणा किया फिर उपवास किया, फिर तेला किया, इस प्रकार हर तपस्या के बाद उपवास करके आगे का तप करता हुआ सोलह तक चढ़ता है, फिर उपवास करके उसी क्रम से पन्द्रह - चौदह करता हुआ उतरता है । इस तप में ग्यारह महिने पन्द्रह दिन लगते हैं । इनमें उनसठ दिन पारणे के और दो सौ छयासी दिन तपस्या के होते हैं। पारणे के भेद से इसकी भी चार परिपाटी होती हैं। लघुसिंहनिष्कीड़ित तप-जैसे क्रीड़ारत सिंह चलता हुआ हर दो चार कदम बाद पीछे की ओर देखता है, फिर आगे चलता है, इसी क्रम से की जाने वाली तपस्या को लघुसिंहनिष्कीड़ित तप कहते हैं । इस तप में उपवास करके बेला करना होता है, फिर उपवास करके तेला किया जाता है। फिर बेला करके चोला करना पड़ता है । इसी क्रम से नौ तक चढ़कर पुनः उपवास तक उतरना पड़ता है । इस तप में छः महिने सात दिन लगते हैं, इसमें तैंतीस पारण के और एक सौ चौपन दिन तप के होते हैं । पारण के भेद से इसकी भी चार परिपाटी होती हैं। -- महासिनिति तय इसकी विधि भी लघुहिनोति तप की भांति ही है, फर्क इतना ही है, उसमें नौ तक चढ़ना पढ़ता है, और इसमें सोलह तक चढ़ा जाता है। इस तप को करने में अठारह महिने और अठारह दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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