SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 605
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. तप-जप व ज्ञान की साधना करता है उस समय उसकी साधना का मध्याह्न काल होता है और संलेखना प्रारम्भ करता है तब उसका सन्ध्या काल होता है । सूर्य उदय के समय पूर्व दिशा मुस्कराती है। उषा सुन्दरी का दृश्य अत्यन्त लुभावना होता है । उसी प्रकार सन्ध्या के समय पश्चिम दिशा का दृश्य भी मन को लुभावनेवाला होता है। सन्ध्या की सुहावनी लालिमा भी दर्शक के हृदय को आनन्द विभोर बना देती है। वही स्थिति साधक की है। उसके जीवन में भी संयुम को ग्रहण करते समय जो मन में उल्लास और उत्साह होता है वही उत्साह मृत्यु के समय भी होता है। जिस छात्र ने वर्ष भर कठिन श्रम किया है वह छात्र परीक्षा प्रदान करते समय घबराता नहीं हैं। उसके मन में एक प्रकार का उत्साह होता है । वह प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण भी होता है। वैसे ही जिस साधक ने निर्मल संयम की साधना जीवन भर की है वह संथारे से घबराता नहीं, पर उसके मन में एक आनन्द होता है । शायर के शब्दों में मुबारक जिन्दगी के वास्ते दुनिया को मर मिटना । हमें तो मौत में भी जिन्दगी मालूम देती है। मौत जिसको कह रहे वो जिन्दगी का नाम है । मौत से डरना-डराना कायरों का काम है। जैन आगम साहित्य, उसका व्याख्या साहित्य और जैन कथा साहित्य-इतिहास में संलेखनायुक्त समाधिमरण प्राप्त करने वाले हजारों साधक और साधिकाओं का उल्लेख है। तीर्थकरों से लेकर गणधर, आचार्य, उपाध्याय व श्रमण-श्रमणियाँ तथा गृहस्थ साधक भी समाधिमरण को वरण करने में अत्यन्त आनन्द की अनुभूति करते रहे हैं। इतेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी समाधिमरण का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। इस तरह सम्पूर्ण जैन परम्परा समाधिमरण को महत्त्व देती रही है । भगवान महावीर के पश्चात् द्वादश वर्षों के भयंकर दुष्कालों में संयमी साधना में अनेक बाधाएँ उपस्थित होने लगी तो उन वीर श्रमणों ने संलेखनायुक्त मरण स्वीकार कर ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया। विस्तार भय से हम यहाँ प्रागैतिहासिक काल से आज तक की सूची नहीं दे रहे हैं। यदि कोई शोधार्थी इस पर कार्य करे तो उसको बहुत कुछ सामग्री सहज रूप से उपलब्ध हो सकती है। संलेखना और आत्मघात में शरीर त्याग समान रूप से है, पर शरीर को कौन, कैसे और क्यों छोड़ रहा है ? यह महत्त्वपूर्ण बात है। संलेखना में वही साधक शरीर का विसर्जन करता है जिसने अध्यात्म की गहन साधना की है, भेदविज्ञान की बारीकियों से जो अच्छी तरह से परिचित है, जिसका चिन्तन स्वस्थ, सुचिन्तित है। "मैं केवल शरीर ही नहीं किन्तु मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व है । शरीर मरणशील है और आत्मा शाश्वत है । पुद्गल और जीव--ये दोनों पृथक्पृथक हैं। दोनों के अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व हैं। पुद्गल कभी जीव नहीं हो सकता और जीव कभी पुद्गल नहीं हो सकता है । संलेखना, जीव और पुद्गल जो एव मेक हो चुके हैं, उसे पृथक् करने का एक सुयोजित प्रयास है । संलेखना और आत्मघात इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। आत्मवात करते समय व्यक्ति की मुखमुद्रा विकृत होती है, उस पर तनाव होता है, उस पर भय की रेखाएं झलकती रहती हैं किन्तु संलेखना में साधक की मुख-मुद्रा पूर्ण शान्त होती है, उसके चेहरे पर किसी भी प्रकार की आकुलता-व्याकुलता नहीं होती। आत्मघात करने वाले का स्नायु तन्त्र तनावर क्त होता है। जबकि संलेखना करने वाले साधक का स्नायु-तन्त्र तनावमुक्त होता है । आत्मघात करने वाले व्यक्ति की मृत्यु आकस्मिक होती है जबकि संलेखना करने वाले की मृत्यु जीवन-दर्शन पर आधारित होती है। आत्मघात करने वाला जिस स्थान पर आत्मघात करना चाहता है उस स्थान को वह प्रकट होने देना नहीं चाहता है वह लुकछिपकर आत्मघात करता है, जबकि संलेखना करने वाला साधक किसी प्रकार स्थान को नहीं छिपाता । अपितु उसका स्थान पूर्व निर्धारित होता है, सभी को ज्ञात होता है । आत्मघात करने वाले की वृत्ति में कायरता है, अपने कर्तव्य से पलायन करना चाहता है जबकि संलेखना वाले की वृत्ति में प्रबल पराक्रम है। उसमें पलायन नहीं किन्तु सत्यस्थिति को स्वीकार करना है । आत्मघात और संलेखना के अन्तर को मनोविज्ञान द्वारा भी स्पष्ट समझा जा सकता है मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy