SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 601
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Na २३६ Jain Education International प्राप्त किया किन्तु समाधि सहित पुष्य-मरण नहीं हुआ। यदि समाधि सहित पुग्य-मरण होता तो वह आत्मा संसार रूपी पिंजड़े में कभी भी बन्द होकर नहीं रहता। भगवती आराधना में कहा है जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण करता है वह सात-आठ पर्याय से अधिक संसार में प्ररिभ्रमण नहीं करता । आचार्य समन्तभद्र ने कहा है— जीवन में आचरित तपों का कल अन्त समय में गृहीत संलेखना है । "मृत्यु महोत्सव" में लिखा है- जो महान् फल बड़े-बड़े प्रती संयमी आदि की कायक्लेश आदि उत्कृष्ट तप तथा अहिंसा आदि महाव्रतों को धारण करने से नहीं होता वह फल अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर त्यागने से प्राप्त होता है- कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण् : १. २. ३. ४. -शांतिसोपान, श्लोक २१ "गोम्मटसार" में आचार्य नेमिचन्द्र ने शरीर के त्याग करने के तीन प्रकार बताये हैं- च्युत, च्यावित और व्यक्त | अपने आप आयु समाप्त होने पर शरीर छूटता है वह च्युत है। विषभक्षण, रक्तक्षय, धातुक्षय, शस्त्राघात, संक्लेश, अग्निदाह, जल प्रवेश प्रभृति विभिन्न निमित्तों से जो शरीर छूटता है वह च्यावित है। रोग आदि समुत्पन्न होने पर तवा असाध्य मारणांतिक व उपसर्ग आदि उपस्थित होने पर विवेकयुक्त समभावपूर्वक जो शरीर त्याग किया जाता है, वह त्यक्त है । त्यक्त शरीर ही सर्वश्रेष्ठ है, इसमें साधक पूर्ण जाग्रत रहता है। उसके मन में संक्लेश नहीं होता। इसी मरण को संधारा, समाधिमरण, पण्डित-मरण, संलेखना मरण प्रभूति विविध नामों से कहा गया है। ५. ६. "यत्फलं प्राप्यते सद्भिर्वातायासविडंबनात् । तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मृत्युकाले समाधिना ॥ " आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर कड़ाई स्थविरों का वर्णन है। वे मंधारासंलेखना करने वाले साधकों के साथ पर्वत आदि पर जाते हैं, और जब तक संथारा करने वाले का संथारा पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वे स्वयं भी आहारादि ग्रहण नहीं करते । दिगम्बर परम्परा की भगवती आराधना में भी इस प्रकार के साधकों का विस्तार से वर्णन है । संलेखना के पाँच अतिचार : ( १ ) ( २ ) इहलोकाशंसा प्रयोग-धन, परिवार आदि इस लोक सम्बन्धी किसी वस्तु की आकांक्षा करना । परलोकाशंसा प्रयोग — स्वर्ग सुख आदि परलोक से सम्बन्ध रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना । (३) जीविताशंसा प्रयोग - जीवन की आकांक्षा करना । ( ४ ) मरणाशंसा प्रयोग कष्टों से घबराकर शीघ्र मरने की आकांक्षा करना । (५) कामभोगाशंसा प्रयोग - अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में काम-भोगों की आकांक्षा करना । सावधानी रखने पर भी प्रमाद या अज्ञान के कारण जिन दोषों के लगने की सम्भावना है उन्हें अतिचार सागार धर्मामृत ७-५८ और ८ २७, २८. भगवती आराधना | रत्नकरण्ड श्रावकाचार ५ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड ५६५०५०. ज्ञातासूत्र, अ० १ सूत्र ४६. 1 भगवती आराधना, गा० ६५०-६७६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy