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________________ olo o loo -० -0 U .0 Jain Education International २३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : चतुर्थ खण्ड विचित्र कायक्लेशों के द्वारा तन को कृश किया जाता है । उसमें कोई क्रम नहीं होता। दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर शरीर को कृश किया जाता है। नौवे और दसवें वर्ष में आयंबिल और विगय का त्याग किया जाता है । ग्यारहवें वर्ष में केवल आयंबिल किया जाता है । बारहवें वर्ष में प्रथम छः माह में अविकृष्ट तप, उपवास. बेला आदि किया जाता है। वारहवें वर्ष के द्वितीय छः माह में विकृष्टतम तेला, बोला आदि तप किये जाते हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में संलेखना के विषय में यत्किंचित मतभेद हैं। पर दोनों ही परम्पराओं का तात्पर्य एक सदृश है। मूलाराधना में आचार्य शिवकोटि ने लिखा है-संलेखना का जो क्रम प्रतिपादित किया गया है वही क्रम पूर्ण रूप से निश्चित है, यह बात नहीं है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और शारीरिक संस्थान आदि की दृष्टि से उस क्रम में परिवर्तन भी किया जा सकता है । 3 संलेखना में जो तपविधि का प्रतिपादन किया है, उससे यह नहीं समझना चाहिए कि तब ही संलेखना है । तप के साथ कषायों की मन्दता आवश्यक है । विषयों से निवृत्ति अनिवार्य है । तपः कर्म के साथ ही अप्रशस्त भावनाओं का परित्याग के साथ प्रशस्त भावनाओं का चिन्तन परमावश्यक है । आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि संलेखना व्रत ग्रहण करने के पूर्व संलेखनाव्रतधारी को विचारों की विशुद्धि के लिए सभी सांसारिक सम्बन्धों से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना चाहिए। यदि किसी के प्रति मन में आक्रोश हो तो उससे क्षमा-याचना कर लेनी चाहिए। मानसिक शान्ति के लिए साधक को सबसे पहले सद्गुरु के समक्ष निश्शल्य होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचना करते समय मन में किचित् मात्र भी संकोच नहीं रखना चाहिए। अपने जीवन में तन से, मन से और वचन से जो पाप कृत्य किये हों, करवाये हों या करने की प्रेरणा दी हो उनकी आलोचना कर हृदय को विशुद्ध बनाना चाहिए। यदि आचार्य या सद्गुरु का अभाव हो तो अपने दोषों को प्रकट कर देना चाहिए। पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए।" आचार्य वीरनन्दी ने अपने "आचारसार"" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि साधक को संलेखना की सफलता के लिए योग्य स्थान का चुनाव करना चाहिए जहाँ के राजा के मन में धार्मिक भावना अंगड़ाइयाँ ले रही हो, जहाँ की प्रजा के अन्तमानस में धर्म और आचार्य के प्रति गहरी निष्ठा हो, जहाँ के निवासी आर्थिक दृष्टि से सुखी और समृद्ध हों, जहाँ का वातावरण तपःसाधना के लिए व्यवधान के रूप में न हो । साथ ही साधक को न अपने शरीर पर ममता होनी चाहिए न चेतन-अचेतन किसी भी वस्तु के प्रति मोह-ममता हो । यहाँ तक कि अपने शिष्यों के प्रति भी मन में किंचित् मात्र भी आसक्ति न हो। वह परीषहों को सहन करने में सक्षम हो। संलेखना की अवधि में पहले ठोस पदार्थों का आहार में उपयोग करे। उसके पश्चातु पेय पदार्थ ग्रहण करे । आहार इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिससे वात, पित्त, कफ विक्षुब्ध न हों । संलेखना ग्रहण करने के पूर्व इस बात की जानकारी आवश्यक है कि जीवन और मरण की अवधि कितनी है। यदि शरीर में व्याधि हो गई हो पर जीवन की अवधि सम्बी हो तो उसे संलेखना ग्रहण करने का विधान नहीं है । १. (क) मूलाराधना ३।२५३ (ख) निविकृतिः रसव्यंजनादिवर्जितमव्यतिकीर्णमोदनादि भोजनम् । २. मूलाराधना ३।२५४ ३. मूलाराधना ३।२५५ ४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार ५-३-७ ५. आचारसार १० For Private & Personal Use Only - मूलाराधना दर्पण ३।२५४, पृ० ४७५ www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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