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________________ २२८ ++ संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है। वह जीवन-शुद्धि और मरण-शुद्धि की एक प्रक्रिया है । जिस साधक ने मदन के मद को गलित कर दिया है, जो परिग्रह पंक से मुक्त हो चुका है, सदा सर्वदा आत्मचिन्तन में लीन रहता है वही व्यक्ति इस मार्ग को अपनाता है। संलेखना में सामान्य मनोवल वाला साधक, विशिष्ट मनोबल को प्राप्त करता है । उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं समाधि का कारण है। एक सन्त कवि ने कहा है - जैसे कोई वधू डोले पर बैठकर ससुराल जा रही हो ।' उसके मन में अपार आह्लाद होता है, वैसे ही साधक को भी परलोक जाते समय अपार प्रसन्नता होती है । संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम श्लोक में संलेखना का लक्षण बताया है, और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का आचार्य शिवकोटि ने "संलेखना" और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के लिए संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का भेद मिटा दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिए मानते हैं और संलेखना गृहस्थ के लिए मानते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं उनमें संलेखना को चौथा शिक्षाव्रत माना है। आचार्यका अनुसरण करते हुए शिवाकोटि आचार्य देवसेन, आचार्य जिनसेन, आचार्य वसुनन्दि आदि ने संलेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने संलेखना को श्रावक के द्वादश व्रतों में नहीं गिना है। उन्होंने संलेखना को अलग नियम व धर्म के रूप में प्रतिपादन किया है । . आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, आचार्य अकलंक, विद्यानन्दी, आचार्य सोमदेव, अमितगति, स्वामि कार्तिकेय प्रभुति अनेक आचायों ने आचार्य उमास्वाति के कवन का समर्थन किया है इन सभी आचायों ने एक स्वर से इस सम तथ्य को स्वीकार किया है कि शिक्षाव्रत में संलेखना को नहीं गिनना चाहिए। क्योंकि शिक्षाव्रत में अभ्यास किया जाता है । पर संलेखना मृत्यु का समय उपस्थित होने पर स्वीकार की जाती है, उस समय अभ्यास के लिए अवकाश ही कहाँ है, यदि द्वादश व्रतों में संलेखना को गिनेंगे तो फिर एकादश प्रतिमाओं को धारण करने का समय कहाँ रहेगा। इसलिए उमास्वाति का मन्तब्य उचित है। श्वेताम्बर जैन आगम माहित्य और आगमेतर साहित्य में कहीं पर भी संलेखना को द्वादशवतों में नहीं गिना है। इसलिए साधरण के लिए और संजना गृहस्य के लिए है यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगम साहित्य में अनेक श्रमण श्रमणियों के द्वारा संलेखना ग्रहण करने के प्रमाण समुपलब्ध होते हैं। संलेखना की व्याख्या 3 आचार्य अभयदेव ने स्थानांग वृति" में संजना की परिभाषा करते हुए लिखा है "जिस किया के द्वारा शरीर एवं कषाय को दुर्बल और कृश किया जाता है वह संलेखना है ।" "ज्ञातासूत्र " की वृत्ति में भी इसी अर्थ को स्वीकार किया है। "प्रवचनसारोद्वार" में "शास्त्र में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि को संबना कहा है।" निशीन Jain Education International कर्मयोगी श्री केसरीमलजी गुराना अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड १. २. ३. ४. ५. "सजनि ! डोले पर हो जा सवार लेने आ पहुँचे हैं कहार ।" "सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुजे उत्य सहना अन्ते ॥ न संलेहणा संलिख्यतेऽनया शरीर कषायादि इति संलेखना " स्थानांग २ उ० २ वृत्ति "कषायशरीरकृशतायाम्" । आगमोक्तविधिना शरीरापकर्षणम् --प्रवचनसारोद्धार १३५ । For Private & Personal Use Only - नारिषपाव गाभा २६ - शाता० वृत्ति www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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