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________________ जैन रहस्यवाद २०५ - . - . -. - . -. -. है। उनका 'दोहापाहुड' रहस्यवाद की परिभाषाओं से भरा पड़ा है। शिव-शक्ति का मिलन होने पर अद्धतभाव की स्थिति आ जाती है और मोह-विलीन हो जाता है। सिव विणु सत्ति ण वावरइ सिउ पुणु सत्ति विहीणु । दो हि मि जाणहि सयलु-जगु वुज्झइ मोह विलीणु ॥५५॥' मुनि रामसिंह के बाद रहस्णत्मक प्रवृत्तियों का कुछ और विकास होता गया। इस विकास का मूल कारण भक्ति का उद्रेक था। इस भक्ति का चरम उत्कर्ष महाकवि बनारसीदास जैसे हिन्दी जैन कवियों में देखा जा सकता हैनाटक समयसार, मोह-विवेक-युद्ध, बनारसीविलास आदि ग्रन्थों में उन्होंने भक्ति-प्रेम और श्रद्धा के जिस समन्वित रूप को प्रस्तुत किया है वह देखते ही बनता है। सुमति को पत्नी और चेतन को पति बनाकर जिस आध्यात्मिक-विरह को उकेरा है, वह स्पृहणीय है । आत्मारूपी पत्नी और परमात्मारूपी पति के वियोग का भी वर्णन अत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है। अन्त में आत्मा को उसका पति उसके घट (अन्तरात्मा) में ही मिल जाता है। इस एकत्व की अनुभूति को महाकवि बनारसीदास ने इस प्रकार वणित किया है पिय मोरे घट मैं पिय माहिं । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहिं ।। पिय भी करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी में ज्ञान विभूति ।। पिय सुख सागर मैं सुख सींव । पिय सुख मंदिर मैं शिव-नींव । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ।। पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवलवानि ॥२ ब्रह्म साक्षात्कार रहस्यवादात्मक प्रवृत्तियों में अन्यतम है। जैन साधना में परमात्मा को ब्रह्म कह दिया है। बनारसीदास ने तादात्म्य अनुभूति के सन्दर्भ में अपने भावों को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है बालम तुहं तन चितवन गागरि फूटि । अंचरा गो फहराय सरम गे फुटि, बालम ॥१॥ पिय सुधि पावत वन में पेसिउ पेलि, झाड़त राज डगरिया भयउ अकेलि, बालम ॥२॥३ रहस्यभावनात्मक इन प्रवृत्तियों में भावनात्मक और साधनात्मक दोनों प्रकार के रहस्यवाद उपलब्ध होते हैं। मोह-राग-द्वेष आदि को दूर करने के लिए सद्गुरु और सत्संग की आवश्यकता तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्वित साधना की अभिव्यक्ति हिन्दी जैन रहस्यवादी कवियों को लेखनी से बड़ी ही सुन्दर, सरल और सरस भाषा में प्रस्फुटित हुई है। इस दृष्टि से सकलकीर्ति का आराधना प्रतिबोधसार, जिनदास का चेतनगीत, जगतराम का आगमविलास, भवानीदास का चेतनसुमतिसज्झाय, भगवतीदास का योगीरासा, रूपचन्द का परमाथंगीत, द्यानतराय का द्यानतविलास, आनन्दवन का आनन्दवन बहोत्तरी, भूधरदास का भूधरविलास आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं। जैन रहस्यभावना इन परम्पराओं में उलझती-सुलझती आधुनिककाल तक वाद की स्थिति में पहुँच गयी। फिर भी स्वरूप और विश्लेषण करने के उपरान्त यह प्रतीत होता है कि विशुद्ध साधनों पर आधारित साध्य की प्राप्ति के लिए जैन साधक परामानवतावादी बन जाता है और आत्मदर्शन के माध्यम से चरमतत्त्व को प्राप्त करता है। इस प्राप्ति में उसकी आदान शक्ति निमित कारणों का आश्रय पाकर बलवती हो जाती है। उसका स्वयं का पुरुषार्थ इसमें कारणभूत होता है, ईश्वर-कृपा नहीं । यही जैन रहस्यवाद है। १. योगसार, ५५. २. बनारसी विलास, अध्यात्मगीत, १६. ३. वही, पृ० २२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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