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________________ १६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड - - - - - - - - - ANSARGIBIHEROID गया । दूसरी बात, बाह्य-पूजन पद्धति, कर्मकाण्ड आदि का सम्बन्ध भी जैनधर्म और बौद्धधर्म के मूल रूपों में नहीं मिलता । ये तत्त्व तो श्रद्धा और भक्ति के विकास के सूचक हैं । उक्त धर्मों का मूल तत्त्व तो संसरण के कारणों को दूरकर निर्वाण की प्राप्ति करना है । यही मार्ग उस धर्मों का वास्तविक अध्यात्म मार्ग है। इसी को हम तद्तद् धर्मों का रहस्य भी कह सकते हैं। रहस्यवाद का सम्बन्ध जैसा हम पहले कह चुके हैं किसी न किसी धर्म विशेष से अवश्य रहेगा। ऐसा लगता है, अभी तक रहस्यवाद की व्याख्या और उसकी परिभाषा मात्र वैदिक दर्शन और संस्कृति को मानदण्ड मानकर की जाती रही है । ईसाई धर्म भी इस सीमा से बाहर नहीं है। इन धर्मों में ईश्वर की सृष्टि का कर्ता आदि स्वीकार किया गया है और इसीलिए रहस्यवाद को उस ओर अधिक मुड़ जाना पड़ा । परन्तु जहाँ तक श्रमण संस्कृति और दर्शन का प्रश्न है वहाँ तो इस रूप में ईश्वर का कोई अस्तित्व है ही नहीं । वहाँ तो आत्मा ही परमात्मपद प्राप्त कर तीर्थकर अथवा बुद्ध बन सकता है। उसे अपने अन्धकाराच्छन्न मार्ग को प्रशस्त करने के लिए एक प्रदीप की आवश्यकता अवश्य रहती है जो उसे प्राचीन आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर प्राप्त हो जाता है। रहस्यभावना के प्रकार रहस्यवाद के प्रकार साधनाओं के प्रकारों पर अवलम्बित हैं। विश्व में जितनी साधनायें होंगी, रहस्यवाद के भी उतने भेद होंगे। उन भेदों के भी प्रभेद मिलेगे। सभी भेदों-प्रभेदों को सामान्यत: दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-भावनात्मक रहस्यवाद और दूसरा साधनात्मक रहस्यवाद। भावनात्मक रहस्यवाद अनुभूति पर आधारित है और साधनात्मक रहस्यवाद सम्यक् आचार-विचारयुक्त योग साधना पर। दोनों का लक्ष्य एक ही है-परमात्मपद अथवा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति । साधना अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों ही होती है । अन्तर्मुखी साधना में साधक अशुद्ध के मूल स्वरूप विशुद्धात्मा को प्रियतम अथवा प्रियतमा के रूप में स्वीकार कर उसे योगादि के माध्यम से खोजने का यत्न करता है तथा बहिर्मुखी साधना में विविध आध्यात्मिक तथ्यों को स्पष्ट करने का प्रयत्न करता है। रहस्यभावना का सम्बन्ध चरमतत्त्व को प्राप्त करने से रहा है और चरमतत्त्व का सम्बन्ध किसी एक धर्म अथवा योग साधनाविशेष से रहना सम्भव नहीं इसलिए रहस्यभावना की पृष्ठभूमि में साधक की जिज्ञासा और उसका आचरित सम्प्रदाय विशेष महत्त्व रखता है । सम्प्रदायों और उनके आचारों का वैभिन्न्य सम्भवतः विचारों और साधनाओं में वैविध्य स्थापित कर देता है इसलिए साधारण तौर पर आज जो वह मान्यता है कि रहस्यवाद का सम्बन्ध भारतीय साधनाओं में मात्र वैदिक साधना से ही है, मात्र भ्रम है। प्रत्येक सम्प्रदाय का साधक अपने किसी न किसी आप्त पुरुष में अद्धत तत्त्व की स्थापना करने की दृष्टि से उनके ही द्वारा निर्दिष्ट पथ अनुगमन करता है और अलौकिक स्वसंवेद्य अनुभवों और रहस्यभावों को प्रतीक आदि के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है । यही कारण है कि आधुनिक रहस्यवाद की परिभाषा में भी मत-वैभिन्य देखा जाता है। - इसके बावजूद अधिकांश साधनाओं में इतनी समानता दिखाई देती है कि जैसे वे हीनाधिक रूप से किसी एक ही सम्प्रदाय से सम्बद्ध हों । यह अस्वाभाविक भी नहीं, क्योंकि प्रत्येक साधक का मूल लक्ष्य उस अदृष्ट शक्तिविशेष को आत्मसात करना है। उसकी प्राप्ति के लिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी-धारा का पवित्र प्रवाह अपेक्षित है। रहस्यभावना की भूमिका इन तीनों की सुन्दर संगम स्थली है, परम सत्य या परमात्मा के आत्म-साक्षात्कार के स्वरूप का वर्णन सभी साधक एक जैसा नहीं कर सके क्योंकि वह अनादि, अनन्त और सर्वव्यापक है और उसकी प्राप्ति के मार्ग भी अनन्त हैं । अतः अनेक कथनों से उसे व्यंजित किया जाना स्वाभाविक है। उनमें जैन दर्शन के स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के अनुसार किसी का भी कथन गलत नहीं कहा जा सकता। रहस्यभावना में वैभिन्न्य पाये जाने का यही कारण है । संभवतः पद्मावत में जायसी ने निम्न छन्द से इसी भाव को दर्शाया है विधना के मारग हैं तेते। सरग नखत तन रोवां जेते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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