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________________ ॐॐॐॐ oooooO (1 जैन रहस्यवाद डॉ० पुष्पलता जैन (प्राध्यापिका एस० एक० एस० कालेज, न्यू एक्सटेंशन एरिया सदर, नागपुर ) 3 सृष्टि के सर्जक तत्व अनादि और अनन्त हैं। उनकी सर्जनशीलता प्राकृतिक शक्तियों के संगठित रुप निर्भर करती है । पर उसे हम प्रायः किसी अज्ञात शक्ति विशेष से सम्बद्ध कर देते हैं जिसका मूल कारण मानसिक दृष्टि से स्वयं को असमर्थ स्वीकार करना है। इसी असामर्थ्य में सामर्थ्यं पैदा करने वाले "सत्यं निवं सुन्दरम् " तत्त्व की गवेषणा और स्वानुभूति की प्राप्ति के पीछे हमारी रहस्य-भावना एक बहुत बड़ा सम्बल है । साधक के लिये यह एक गुह्य तत्त्व बन जाता है जिसका सम्बन्ध पराबौद्धिक ऋषि महर्षियों की गुह्य साधना की पराकाष्ठा और उसकी विशुद्ध तपस्या से जुड़ा है । प्रत्येक द्रष्टा के साक्षात्कार की दिशा, अनुभूति और अभिव्यक्ति समान नहीं हो सकती । उसका ज्ञान और साधनागम्य अनुभव अन्य प्रत्यक्षदर्शियों के ज्ञान और अनुभव से पृथक् होने की ही सम्भावना अधिक रहा करती है । फिर भी लगभग समान मार्गों को किसी एक पन्थ या सम्प्रदाय से जोड़ा जाना भी अस्वाभाविक नहीं । जिस मार्ग को कोई चुम्बकीय व्यक्तित्व प्रस्तुत कर देता है, उससे उसका चिरन्तन सम्बन्ध जुड़ जाता है और आगामी शिष्य परम्परा उसी मार्ग का अनुसरण करती रहती है । यथासमय इसी मार्ग को अपनी परम्परा के अनुकूल कोई नाम दे दिया जाता है जिसे हम अपनी भाषा में धर्म कहने लगते हैं । रहस्य - भावना के साथ ही उस धर्म का अविनाभाव सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है और कालान्तर में भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों की सीमा में बाँध दिया जाता है । अर्थ और परिभाषा 'रहस्य' शब्द रहस् पर आधारित है । 'रहस्' शब्द 'रह' त्यागार्थक धातु में 'असुन्' प्रत्यय लगाने पर बनता है ।" तदनन्तर 'यत्' प्रत्यय जोड़ने पर 'रहस्य' शब्द निर्मित होता है। इसका विग्रह होगा - रहसि भवं रहस्यम्' ।' अर्थात् रहस्य एक ऐसी मानसिक प्रतीति अथवा अनुभूति है जिसमें साधक ज्ञय वस्तु के अतिरिक्त ज्ञेयान्तर वस्तुओं की वासना से असंपृक्त हो जाता है। इस रहस्य को आध्यात्मिक क्षेत्र में अनुभूति के रूप में और काव्यात्मक क्षेत्र में रस के रूप में प्रस्फुटित किया गया है । रहस्य के उक्त दोनों क्षेत्रों के मर्मज्ञों ने स्वानुभूति को चिदानन्द चैतन्य अथवा ब्रह्मानन्द सहोदर नाम समर्पित किया है। गुह्य अर्थ में भी रहस्य शब्द का प्रयोग हुआ है | 3 १. २. ३. गुह्य ं रहस्यम्''''''''अभिधान चिंतामणि कोश, ७४२ । उत्तरकाल में यह शब्द अध्यात्म के साथ जुड़ गया । पं० टोडरमल (१७३६ ई०) ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखकर इस शब्द के प्रयोग को आध्यात्म के क्षेत्र में पूरी प्रक्रिया के साथ उतार दिया है। सर्वधातुभ्यो (उणादि सूप - चतुर्धपाद ) | तत्र भवः, विगादिभ्यो यत् (पाणिनि सूत्र, ४. ३. ५३-५४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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