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________________ १८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड इस व्यवहार से यह निष्कर्ष खोजा गया कि आकाश गंगाएँ हम से निरन्तर दूर हटती जा रही हैं वरना इसे किसी अन्य प्रक्रिया या घटना से नहीं समझा जा सकता। विश्व के निरन्तर शून्य में विस्तृत होने में इस प्रमाण के अलावा अन्य कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है— केवल इसी सिद्धान्त पर सारा ढाँचा खड़ा है। प्रकाश की लाल रेखा में परिवर्तन के अन्य कारण सम्भव है । सर जेम्सजीन्स के अनुसार वातावरण के दबाव के कारण भी लालरेखा में विचलन सम्भव है। सुदूर तारे से आने वाला प्रकाश अपने लम्बे मार्ग में शक्ति का व्यय करता जाता है जिससे भी लालरेखा में विचलन होना सम्भव है। केलिफोर्निया इन्स्टीट्यूट के ज्योतिबिंद डा० विकी का विचार है कि जब प्रकाश किसी अन्य बड़े तारे के निकट से या किसी निहारिका से गुजरता है तो उसकी राशि एवं ऊर्जा कम हो जाती है जिससे प्रकाश का आवर्तन बढ़ जाता है एवं लालरेखा में तीव्रता आ जाती है । अतः "डोपलर के प्रभाव" के आधार पर ज्योतिर्पिण्डों का अन्तराल मापने के जितने साधन वर्तमान ज्योतिपिण्डों के निरन्तर दूर हटने की मान्यता संदिग्ध है। में प्रचलित हैं वे भी इस विषय पर प्रकाश नहीं डालते । पृथ्वी से निरन्तर दूर हटने वाले तारों की दूरियों में समय- समय पर अन्तर प्रकट होना चाहिये पर वैसा नहीं होता। जैसे पृथ्वी का निकटस्थ तारा प्रोक्सिमा सेंटोरी है जो पचास वर्ष पूर्व पृथिवी से ४.३ प्रकाश वर्ष दूर था। आज भी उसकी दूरी मापने पर ४.३ प्रकाशवर्ष ही आती है । विस्तारमान् विश्व सिद्धान्त के अनुसार सभी ज्योतिपिण्ड विस्फोट केन्द्र के चारों ओर विभिन्न दशाओं में छितरा रहे हैं ऐसी स्थिति में पृथ्वी से उनकी दूरियों में अन्तर प्रकट होना चाहिये भले ही वे कितने ही दूर क्यों न हों। पर पिछले दो हजार वर्षों में नाम मात्र भी अन्तर प्रकट नहीं हुआ । ब्रह्माण्ड स्थिर व असीम है या गतिशील व असीम यह निर्णय कर पाना आज भी असम्भव सा है । ब्रह्माण्ड और जैनदर्शन ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, आयु, आकार व सीमा के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिकों के विचारों में कितनी विषमता है, यह स्पष्ट है । अब हम जैनदर्शन में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी विचारों की व्याख्या करेंगे । जैन मतानुसार- ( १ ) विश्व ( ब्रह्माण्ड ) अजन्मा, अनादि व शाश्वत है। भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब ब्रह्माण्ड नहीं था, भविष्य में ऐसा कोई समय नहीं होगा जब ब्रह्माण्ड नहीं होगा । अर्थात् ब्रह्माण्ड का अस्तित्व अनादिकाल से है एवं अनन्त काल तक रहेगा । इस मान्यता का आधार पदार्थ की अविनाशता है। यह सर्वसम्मत तथ्य है कि पदार्थ न तो कभी नष्ट होता है, न कभी निर्मित ही । समस्त ब्रह्माण्ड में जितना पदार्थ भूतकाल में था उतना आज भी है व भविष्य में भी रहेगा। पदार्थ की मात्रा में अणुमात्र की घट-बढ़ कभी सम्भव नहीं । यदि पदार्थ की मात्रा स्थिर है और इसका अस्तित्व अनादि काल से है तो ब्रह्माण्ड भी अनादि काल से है, यह निष्कर्ष युक्तियुक्त होगा । यह कल्पना अशक्य होगी कि भूतकाल में कभी शून्य में से यकायक ब्रह्माण्डीय पदार्थ उत्पन्न हो गया । पदार्थ शून्य में से प्रकट नहीं हो सकता। इसी प्रकार पदार्थ शून्य में विलीन भी नहीं हो सकता। इसमें ब्रह्माण्ड की अनन्तता सिद्ध होती है। पौराणिक व आधुनिक वैज्ञानिक मत जो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक विशाल अणु में विस्फोट से मानते हैं वे भी इस तथाकथित उत्पत्ति के पूर्व विशाल अणु का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । इस विशाल अणु का पूर्व रूप क्या रहा होगा ? इसके पूर्व रूप के भी पहले कोई अन्य रूप रहा होगा - इस पूर्वापरता पर विचार करते हुए पीछे हटते जायें तो कहीं विनाश नहीं मिलेगा और अन्त में पदार्थ का अनादि अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ेगा। ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के जिसने भी सिद्धान्त हैं वे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति नहीं दर्शाते बल्कि ब्रह्माण्ड स्थित पदार्थ का रूप परिवर्तन समझाते हैं । पदार्थ नष्ट नहीं होकर नवीन रूप धारण करता है जैसे एक लकड़ी को जलाया जाय तो लकड़ी का कार्बन वायुमण्डलीय आवसी जन में मिलकर कार्बनडाई आक्साइड बन जायगा एवं कुछ भाग राख बन जायगा । लकड़ी में जितना पदार्थ जलने के पूर्व था उतना जलने के पश्चात् भी है, पर अन्य रूप में पदार्थ का रूप परिवर्तन एक प्राकृतिक घटना है। कोई भी पदार्थ गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव, ताप, दाब एवं मौसम के प्रभाव से अपना स्वरूप स्थिर नहीं रख सकता। उसमें ह्रास या विकास होगा । आज अन्तरिक्ष में हम जिन नक्षत्रों-तारों आदि को देखते हैं वे अरबों वर्ष पूर्व अणुओं, न्यूट्रोनों या अन्य 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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