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________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-वारा १७१ ..................... आज्ञा, अपाय, विपाक तथा संस्थान-ये ध्येय हैं। जैसे- स्थूल या सूक्ष्म आलम्बन पर चित्त एकाग्र किया जाता है, वैसे ही इन ध्येय विषयों या भावों पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। इनके चिन्तन से चित की शुद्धि होती है, चित्त निरोध-दशा की ओर अग्रसर होता है, इसलिए इनका चिन्तन धर्मध्यान कहलाता है। धर्म-ध्यान चित्तशुद्धि या चित्त-निरोध का प्रारम्भिक अभ्यास है। शुक्ल-ध्यान में वह अभ्यास परिपक्व हो जाता है। मन सहज ही चंचल है। विषयों का आलम्बन पाकर वह चंचलता बढ़ती जाती है। ध्यान का कार्य उस चंचल एवं भ्रमणशील मन को शेष विषयों से हटा, किसी एक विषय पर स्थिर कर देना है। ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है, मन शान्त और निष्प्रकम्प होता जाता है। शुक्ल-ध्यान के अन्तिम चरण में मन की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध-पूर्ण संवर हो जाता है अर्थात् समाधि अवस्था प्राप्त हो जाती है । आचार्य उमास्वाति ने शुक्लध्यान के चार भेद बतलाये हैं पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि । ६. ४१ ।। पृथक्त्ववितर्कसविचार, एकत्ववितर्कअविचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति । आचार्य हेमचन्द्र ने शुक्ल-ध्यान के स्वामी, शुक्ल-ध्यान का क्रम, फल, शुक्ल-ध्यान द्वारा घाति कर्मों का अपचय-क्षय आदि अनेक विषयों का विशद विश्लेषण किया, जो मननीय है। जैन परम्परा के अनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतावलम्बी विकल्प है। पूर्वधर-विशिष्ट ज्ञानी मुनि पूर्वश्रुतविशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक द्रव्य का आलम्बन लेकर ध्यान करता है, किन्तु उसके किसी एक परिणाम या पर्याय (क्षण-क्षणवर्ती अवस्था विशेष) पर स्थिर नहीं रहता। वह उसके विविध परिणामों पर संचरण करता है-- शब्द से अथं पर, अर्थ से शब्द पर तथा मन, वाणी एवं देह में एक दूसरे की प्रकृति पर संक्रमण करता है, अनेक अपेक्षाओ से विचरण करता है। ऐसा करना पृथक्त्ववितर्क शुक्ल-ध्यान है। शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही होता है, अत: उस अंश में मन की स्थिरता बनी रहती है। इस अपेक्षा से उसे ध्यान कहने में आपत्ति नहीं आती। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में सवितर्क-समापत्ति (समाधि) का जो वर्णन किया है, वह पृथक्त्व-वितर्कसविचार शुक्लध्यान से तुलनीय है । योगसूत्र में वितर्क समापत्ति का विवेचन इस प्रकार है तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥१.४२. अर्थात्-शब्द, अर्थ और ज्ञान-इन तीनों के विकल्पों से संकीर्ण-सम्मिलित समापत्ति-समाधि सवितकसमापत्ति है। जैन एवं पातंजल योग से सम्बद्ध इन दोनों विधाओं की गहराई में जाने से अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्राकट्य संभाव्य है। पूर्वधर-विशिष्ट ज्ञानी पूर्वश्रत-विशिष्ट ज्ञान के किसी एक परिणाम पर चित्त को स्थिर करता है। वह शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण नहीं करता। वैसा ध्यान एकत्व-वितर्क-अविचार की संज्ञा से अभिहित है। पहले में पृथक्त्व है अतः वह सविचार है, दूसरे में एकत्व है, इस अपेक्षा से उसकी अविचार संज्ञा है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि पहले में वैचारिक संक्रम हैं, दूसरे में असंक्रम । आचार्य हेमचन्द्र ने उन्हें अपने योगशास्त्र में पृथक्त्व-श्रुत-सविचार तथा एकत्व-श्रुत-अविचार संज्ञा से अभिहित किया है । जैसे ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्यश्रुताविचारं च । सूक्ष्मक्रियमुत्सन्नक्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत् ॥११.५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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