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________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा १६३ . मूल आगम, उन पर रचित उपर्युक्त व्याख्या-साहित्य में जैनदर्शन के विभिन्न अंगों का विस्तृत एवं विशद विश्लेषण प्राप्त है । मूल आगमों में योग के सन्दर्भ में सामग्री तो प्राप्त है और पर्याप्त भी, पर है विकीर्ण रूप में। व्याख्या ग्रन्थों में यत्र-तत्र उसका विस्तार है, जो अनुशीलनीय है। पर वस्तुतः वह सामग्री क्रमबद्ध या व्यवस्थित नहीं है । जिस सन्दर्भ में जो विवेचन-विश्लेषण अपेक्षित हुआ, कर दिया गया तथा उसे वहीं छोड़ दिया गया। ई० पाँचवी-छठी शताब्दी में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण एक बहुत ही समर्थ आगम-कुशल विद्वान् हुए। जैन आचार्यों के शब्दों में वे दुःषम काल में अन्धकार में निमज्जमान जिन-प्रवचन के उद्योत के लिए दीप सदश थे। उनका विशेषावश्यकभाव्य नामक ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है। उसमें अनेक स्थानों पर योग-सम्बन्धी विषयों का विवेचन है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की समाधिशतक नामक एक और कृति भी है, जिसका योग से सम्बन्ध है। परिशीलन से ज्ञात होता है, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने आगम तथा नियुक्ति आदि में वर्णित विषय से विशेष अधिक नहीं कहा है। उनकी वर्णनशैली भी आगमिक जैसी है। साधक जीवन के लिए अत्यन्त अपेक्षित योग जैसे उपयोगी विषय पर जैन परम्परा में सबसे पहले सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध सामग्री उपस्थित करने वाले आचार्य हरिभद्रसूरि हैं। जैन साधक के लिए साधना का मूल वैचारिक आधार जैन आगम हैं। आचार्य हरिभद्र ने जैन आगम वणित योगविषयक तथ्य तो ध्यान में रक्खे ही साथ ही साथ इस सन्दर्भ में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ भी प्रस्तुत की, जिनका योग-साहित्य में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य शुभचन्द्र तथा आचार्य हेमचन्द्र ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया पर ज्ञय है कि इन दोनों के स्रोत एक मात्र आचार्य हरिभद्र नहीं थे । इनकी अपनी परिकल्पना एवं पद्धति थी। फिर भी आचार्य हरिशर में की जहाँ उन्हें ग्राह्यता लगी, उन्होंने रुचिपूर्वक उन्हें ग्रहण किया। यद्यपि हेमचन्द्र और शुभचन्द्र जैन परम्परा के प्रवेताम्बर तथा दिगम्बर-दो भिन्न आम्नायों से सम्बद्ध थे पर योग के निरूपण में दोनों एक दूसरे से काफी प्रभावित प्रतीत होते हैं। पातंजल अष्टांग योग तथा जैन साधना योगाश्चित्तवृत्ति निरोधः" (योगसूत्र १-२) चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णत: निरोध योग है, यह पतंजलिकृत योग को परिभाषा है। जब तक चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निरुद्ध एकाग्र नहीं हो जाती, आत्मा का अपना शुद्ध स्वरूप यथा कथंचित् विस्मृत रहता है । वस्तुतः चित्तवृत्तियाँ ही संसार है, बन्धन है। चित्तवृत्तियों की विकृतावस्था में मिथ्या सत्य जैसा प्रतीत होता है । यह प्रतीति ध्वस्त हो जाए, आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को अधिगत कर ले, दूसरे शब्दों में अविद्या का आवरण क्षीण हो जाए, आत्मा परमात्मास्वरूप बन जाए, यही साधक का चरम लक्ष्य है। यही बन्धन से मुक्तता है, यही सत् चित् आनन्द का साक्षात्कार है। इस स्थिति को आत्मसात् करने का मार्ग योग है । पतंजलि ने योगांगों का निरूपण करते हुए लिखा है “यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोष्टावंगानि" (योगसूत्र २-२६)। अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि-योग के ये आठ अंग हैं। इनका अनुष्ठान करने से चैतसिक मल अपगत हो जाता है। फलत: साधक या योगी के ज्ञान का प्रकाश विवेक ख्याति तक पहुँच जाता है। दूसरे शब्दों में उसे बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियों से सर्वथा भिन्न आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। जैन दर्शन के अनुसार केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक सुख, क्षायिक सम्यक्त्व आदि आत्मा के मूल गुण हैं, जिन्हें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय, मोहनीय आदि कर्मों ने आच्छन्न कर रखा है। आत्मा को आवत किये रहने वाले इन कर्मावरणों के सर्वथा अपाकरण से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। उसी परम शुद्ध, निरावरण आत्म-दशा का नाम मोक्ष है, जो परम आनन्दमय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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