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________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा १६१० सच्चिदानन्दस्वरूप माना गया है अत: अविद्यावस्छिन्न ब्रह्म या जीव में अविद्या के नाश द्वारा नित्य शाश्वत, सहज, निरतिशय आनन्द की अभिव्यक्ति होती है, वही मोक्ष है । आनन्द ही ब्रह्म का स्वरूप है। तैत्तिरीयोपनिषद् के षष्ठ अनुवाक के प्रारम्भ में कहा है "आनन्दो ब्रह्म ति व्यजानात । आनन्दात् हि एव खलु इमानि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनन्दं प्रयन्ति अभिसंविशन्ति ।" अर्थात्- ब्रह्म आनन्दस्वरूप है। आनन्द से ही सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न हुए प्राणी आनन्द से ह जीवित रहते हैं । आनन्द की ओर प्रयाण करते हैं । अन्तत: आनन्द में ही समा जाते हैं। जैन दर्शन में भी आत्मा को अनन्त- अव्याबाध सुखस्वरूप माना गया है। स्वाभाविक सुख, जो कर्मों के आवरण से आच्छन्न रहता है, कर्मों के सर्वथा, सम्पूर्णतः क्षय होने से उद्घाटित हो जाता है । वही मोक्ष है, क्योंकि वह आत्मा की कर्मों के बन्धन से बिलकुल छूट जाने की स्थिति है। आचार्य उमास्वातिरचित तत्त्वार्थ सुत्र के दशम् अध्याय, तृतीय सूत्र में "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" कहा है, जिसका यही आशय है। साधना-सरणि मोक्षात्मक ध्येय की सिद्धि के लिए विभिन्न दार्शनिक-परम्पराओं में अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार ज्ञान, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन, तदनुरूप आचरण आदि के रूप में एक सुव्यवस्थित सरणि निर्दिष्ट की गई है, जिसका विविधता के बावजूद अपना-अपना महत्त्व है। उनमें पतंजलि का योग-दर्शन एक ऐसा क्रम देता है, जिसकी साधना या अभ्यास-पद्धति अनेक अपेक्षाओं से उपयोगी है । यही कारण है, योग-दर्शन-निर्देशित विधिक्रम को सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि के अतिरिक्त अन्यान्य दर्शनों ने भी बहुत कुछ स्वीकार किया है। यों कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सभी प्रकार के साधकों ने अपनी परम्परा, अभिरुचि तथा बुद्धि के अनुरूप योगनिरूपित मार्ग का अनुसरण किया है, जो भारतीय दर्शन एवं संस्कृति की समन्वयमूलक प्रवृत्ति का सूचक है। जैन परम्परा में योग भारतीय चिन्तन-धारा वैदिक, जैन तथा बौद्ध दर्शन की त्रिवेणी के रूप में प्रवहणशीला रही है । वैदिक ऋषियों, जैन तीर्थकरों, आचार्यों तथा बौद्ध तत्त्वद्रष्टाओं ने अपनी निःसंग साधना के परिणामस्वरूप ज्ञान एवं अनभूति के वे दिव्य रत्न दिये हैं, जिनकी आभा कभी धूमिल नहीं होगी। तीनों ही परम्पराओं में योग जैसे महत्वपूर्ण, व्यवहार्य तथा जीवन के विकास की प्रक्रिया से सम्बद्ध विषय पर उच्चकोटि का साहित्य रचा गया। यद्यपि बौद्धों की धार्मिक भाषा पालि रही है जो मागधी-प्राकृत का ही रूपान्तर है तथा जैनों की धामिक भाषा-श्वेताम्बरों की अर्द्धमागधी तथा दिगम्बरों की शौरसेनी प्राकृत रही है; पर बौद्धों एवं जैनों का लगभग सारा का सारा दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा गया है। गम्भीर, विशाल, भाव-समुच्चय को अति संक्षिप्त शब्दावली में अत्यन्त विशदता और प्रभावकता के साथ व्यक्त करने की संस्कृत भाषा की अपनी असाधारण क्षमता है। इन दोनों ही परम्पराओं में योग पर भी प्रायः अधिकांश रचनाएं संस्कृत भाषा में ही हुई हैं। प्रमुख जैन लेखक जैन योग पर लिखने वाले मुख्यतः चार आचार्य हैं-हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र तथा यशोविजय । ये चारों अनेक विषयों के बहुश्रुत पारगामी विद्वान् थे, इनकी कृतियों से यह प्रकट है। आचार्य हरिभद्र (ई० आठवीं शती) ने योग पर संस्कृत में योगबिन्दु तथा योगदृष्टिसमुच्चय, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र, आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव एवं उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म-सार, अध्यात्मोपनिषद् व सटीक द्वात्रिंशत् या द्वात्रिंशिकाओं की रचना की। आचार्य हेमचन्द्र का समय बारहवीं शती है। आचार्य शुभचन्द्र भी लगभग इसी आसपास के हैं। उपाध्याय यशोविजय का समय ई० अठारहवीं शताब्दी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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