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________________ जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन १३५ .-. -.-.-. -.-. -.-.-.-.-....... ....... .. .... ........ .. ...... .. ..... ....... परम्परागत रूढ़िवाद से मुक्ति जैन आ चार दर्शन ने परम्परागत रूढ़िवाद से भी मानव-जाति को मुक्त किया था। उसने उस युग की अनेक रूढ़ियों जैसे पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहितवाद आदि से मानव-समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसलिए उसने इन सबका खुला विरोध भी किया । ब्राह्मण वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि वताकर सामाजिक शोषण का जो कुचक्र प्रारम्भ किया था उसे समाप्त करने के लिए जैनधर्म एवं बौद्ध परम्पराओं ने खुला विद्रोह किया और मानव जाति को रूढ़िवाद के पंक से उबारने का प्रयास किया। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन परम्परा ने इसका जो विरोध किया वह पूर्णतया अहिंसक था। जैन और बौद्ध आचार्यों ने अपने इस विरोध में जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम किया, वह यह था कि अनेक प्रत्ययों की नई परिभाषाएँ की गईं। नीचे हम जैन दर्शन के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण, यज्ञ आदि की कुछ नई परिभाषाएँ प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। ब्राह्मण का नया अर्थ जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता और निम्नता को प्रतिमान माना । उसने यह बताया कि ब्राह्मण की श्रेष्ठता हमें स्वीकार है, लेकिन उसके लिए ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जिसमें सदाचरण को ही ब्राह्मणत्व का आधार बताया। उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें अध्ययन एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। विस्तार भय से हम उसकी समग्र चर्चा में नहीं जाते हुए केवल एक दो पद्यों को प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि जो जल में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों के उपलब्ध होते हुए भी भोगों में लिप्त नहीं रहता, वही सच्चा ब्राह्मण है । जो राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर अन्तर् में विशुद्ध है, वही सच्चा ब्राह्मण है।' धम्मपद में बुद्ध का कथन भी ऐसा ही है। वे कहते हैं कि जैसे कमलपत्र पर पानी होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों का दाना होता है-वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने (जन्ममरण के) भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है-उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार दर्शन एवं बौद्ध परम्परा दोनों ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो कि श्रमणिक परम्परा के अनुकूल थी। न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में वरन् महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा प्रस्तुत की गई। जैन परम्परा के उत्तराध्ययन सूत्र, बौद्ध परम्परा के धम्मपद और महाभारत के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण हमें मिलता है वह न केवल वैचारिक साम्य रखता है वरन् उसमें शाब्दिक साम्य भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यज्ञ का नया अर्थ जिस प्रकार इन आचार दर्शनों में ब्राह्मणत्व की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार यज्ञ को भी एक नये अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपने मन्तव्यों को प्रस्तुत किया वरन उन्होंने यज्ञ की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की है। उत्तराध्ययन सूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन उपलब्ध है, जिसमें बताया गया है कि तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ कल्छी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही ० १. २. उत्तरा० २५।२७, २१. धम्मपद ४०१ । ४०३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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