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________________ १३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ....................................................................... जैसा विस्तृत निरूपण किया है वैसा स्मृति आदि का नहीं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और प्रमाण परीक्षा में अनुमान का सर्वाधिक निरूपण है । पत्र परीक्षा में तो प्रायः अनुमान का ही शास्त्रार्थ उपलब्ध है। विद्यानन्दि ने अनुमान का बही लक्षण दिया है जो अकलंक ने प्रस्तुत किया है। अकलंकदेव ने बहुत ही संक्षेप में अनुमान का लक्षण देते हुए लिखा है कि साधना साध्यविज्ञानमनुमानम् अर्थात् साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान है। विद्यानन्दि ने उनके इसी लक्षण को दोहराया है तथा साध्य और साधन का विवेचन भी उन्होंने अकलंक प्रदर्शित दिशानुसार किया है । साधन वह है जो साध्य का नियम से अविनाभावी है । साध्य के होने पर ही होता है और साध्य के अभाव में नहीं ही होता । ऐसा अविनाभावी साधन ही साध्य का अनुमापक होता है, अन्य नहीं। त्रिलक्षण, पंचलक्षण आदि हेतु लक्षण सदोष होने से युक्त नहीं है। इस विषय का विशेष विवेचन हमने अन्यत्र किया है। साध्य वह है जो इष्ट-अभिप्रेत, शक्य-अबाधित और अप्रसिद्ध होता है। जो अनिष्ट है, प्रत्यक्ष आदि से बाधित है और प्रसिद्ध है वह साध्य सिद्ध करने योग्य नहीं होता । वस्तुतः जिसे सिद्ध करना है उसे वादी के लिए इष्ट होना चाहिए-अनिष्ट को कोई सिद्ध नहीं करता । इसी तरह जो बाधित है--सिद्ध करने के अयोग्य है उसे भी सिद्ध नहीं किया जाता । तथा जो सिद्ध है उसे पुन: सिद्ध करना निरर्थक है---प्रतिवादी जिसे नहीं मानता, वादी उसे ही सिद्ध करता है। इस प्रकार निश्चित साध्याविनाभावी साधन (हेतु) से जो इष्ट, अबाधित और असिद्ध रूप साध्य का विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) किया जाता है वह अनुमान प्रमाण है। इसके दो भेद हैं--स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अनुमाता जब स्वयं ही निश्चित साध्याविनाभावी साधन से साध्य का ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान कहा जाता है। उदाहरणार्थ-जब वह धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान, रस को चखकर उसके सहचर रूप का ज्ञान या कृत्तिका के उदय को देखकर एक मुहूर्त बाद होने वाले शकट के उदय का ज्ञान करता है तब उसका ज्ञान स्वार्थानुमान है। और जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्यों को बोलकर दूसरों को उन साध्य-साधनों की व्याप्ति (अन्यथानुपपत्ति) ग्रहण कराता है और दूसरे उसके उक्त वचनों को सुनकर व्याप्ति ग्रहण करके उक्त हेतुओं से उक्त साध्यों का ज्ञान करते हैं तो दूसरों का वह अनुमान ज्ञान परार्थानुमान है। धर्मभूषण ने स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानमान के सम्पादक तीन अंगों और दो अंगों का भी प्रतिपादन किया है। वे तीन अंग हैं--(१) साधन, (२) साध्य और (३) धर्मी। साधन तो गमकरूप से अंग है, साध्य गम्यरूप से और धर्मी दोनों का आधार रूप से। दो अंग इस प्रकार उन्होंने बतलाये हैं--(१) पक्ष और (२) हेतु । जब साध्यधर्म को धर्मी से पृथक् नहीं माना जाता--उससे विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहा जाता है तो पक्ष और हेतु ये दो ही अंग विवक्षित होते हैं । इन दोनों प्रतिपादनों में मात्र विवक्षा भेद है—मौलिक कोई भेद नहीं है। वचनात्मक परार्थानुमान के प्रतिपाद्यों की दृष्टि से दो, तीन, चार और पांच अवयवों का भी कथन किया गया है। दो अवयव पक्ष (प्रतिज्ञा) और हेतु हैं। उदाहरण सहित तीन, उपनय सहित चार और निगमन सहित पाँच अवयव हैं। ___ यहाँ उल्लेखनीय है कि विद्यानन्दि ने परार्थानुमान के अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत दो भेदों को प्रकट करते १. प्र०प० पृ० ४५, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, १९७७ । २. साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं तदत्यये-न्या० वि० द्वि० भा० २।१ । ३. तत्र साधनं साध्याविनाभावनियमनिश्चयैकलक्षणम्, प्र०प० पृ० ४५ । ४. प्र. प० पृ० ४५ से ४६ । ५. जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ६२, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, १९६६ । ६. न्याय विनि० २-१७२ तथा प्र० प० पृ० ५७ । ७. न्याय दी० पृ० ७२, ३-२४ । ८. प्र०प० पृ० ५८, संस्करण पूर्वोक्त ही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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