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________________ १३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अनिन्द्रियजन्य ज्ञान) को संव्यवहार प्रत्यक्ष भी निरूपित किया है। इससे उन्होंने इन्द्रिय और अनिन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने की अन्य लोगों (दार्शनिकों) की मान्यता का संग्रह किया है और लोकव्यवहार से उसे प्रत्यक्ष बतलाकर परमार्थ से परोक्ष ही स्वीकार किया है और इस तरह उन्होंने आगम-परम्परा का संरक्षण भी किया है। विद्यानन्दि, माणिक्यनन्दि प्रभृति ने भी प्रमाण के ये ही दो भेद माने हैं और अकलंक के मार्ग का पूर्णतया अनुसरण किया है । परोक्ष का लक्षण परोक्ष का लक्षण सबसे पहले स्पष्ट तौर पर आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतलाया है कि पर अर्थात् इन्द्रिय, मन, प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्तों तथा स्वावरण कर्म-क्षयोपमशरूप अन्तरंग कारण की अपेक्षा से आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष कहा गया है। अतः मति और श्रुत दोनों ज्ञान उक्त उभय निमित्तों से उत्पन्न होने के कारण परोक्ष हैं। अकलंकदेव ने पूज्यपाद के इस लक्षण को अपनाते हुए भी परोक्ष का एक नया लक्षण, जो उनके पूर्व प्रचलित नहीं था, दिया है। वह है-अविशदज्ञान, जिसका पहले भी संकेत किया गया है । इस लक्षण के अनुसार जो ज्ञान अविशद् (अस्पष्ट-धुंधला) है, वह परोक्ष प्रमाण है। यद्यपि इन दोनों लक्षणों में तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है जो परापेक्ष होगा वह अविशद् होगा ही, फिर भी अकलंक का परोक्ष लक्षण (अविशद् ज्ञान) दार्शनिक है और संक्षिप्त है तथा पूज्यपाद का परोक्ष लक्षण आगमिक है और विस्तृत है। दूसरी बात यह है कि दोनों में कार्य-कारणभाव भी है । परापेक्षता कारण है और अविशदता उसका कार्य (परिणाम) है । यह हमें ध्यान देने पर ज्ञात हो जाता है। विद्यानन्दि ने५ इन दोनों लक्षणों को साध्य-साधन के रूप में प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि परोक्ष प्रमाण परापेक्ष है, इसलिए वह अविशद् है । परोक्ष का पूज्यपादकृत परापेक्षलक्षण साधनरूप है और अकलंकदेव का परोक्षलक्षण अविशद् ज्ञान साध्यरूप है। माणिक्यनन्दि ने परोक्ष के इसी अविशद् ज्ञान लक्षण को स्वीकार किया और उसे प्रत्यक्षादिपूर्वक होने से परोक्ष कहा है । परवर्ती जैनताकिकों ने' अकलंकीय परोक्ष लक्षण को ही प्राय: प्रश्रय दिया है। परोक्ष प्रमाण के भेद तत्त्वार्थ सूत्रकार ने आगम परम्परा के अनुसार परोक्ष के दो भेद किये हैं - मति और श्रुत । इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है तथा मतिज्ञानपूर्वक उसके बाद जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । परोक्ष के ये दो भेद आगमिक हैं। अकलंक ने इन परोक्ष भेदों को अपनाते हुए भी उनका दार्शनिक दृष्टि से भी विवेचन किया है । उनके विवेचनानुसार परोक्ष प्रमाण के भेदों की संख्या पाँच है। तत्त्वार्थ सूत्रकार द्वारा प्रतिपादित १. प्र०प०, पृ० २८, ४१, ४२, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, १९७७. २. परी० मु० २-१, २, ३ ५, ११ तथा ३-१, २. ३. स० सि० १-१, भारतीय ज्ञानपीठ । ४. त० वा० १-११ तथा लघीय० स्वोपज्ञवृ० १-३. ५. प्र० प० पृ० ४१, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, १९७७. परी० मु० ३-१, २. हेमचन्द्र, प्र० मी० १. २. १ आदि । ८. आद्य परोक्षम्, तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्,-त० सू० १-११, १४, ३०. ६. प्र० सं०, १-२ लघीय० १-३, अकलंकग्र०, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १६३६. १०. त० सू०१-१३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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