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________________ जनधर्म सर्वप्राचीन धर्म-परम्परा ही गत डेढ़ सौ वर्षों में वह शनैः-शनैः सातवीं शती ईस्वी में बौद्धधर्म की शाखा के रूप में उत्पन्न एक छोटे से गौण सम्प्रदाय की स्थिति से उठकर कम से कम वैदिक धर्म जितनी प्राचीन एवं एक सुसमृद्ध संस्कृति से समन्वित स्वतन्त्र तथा महत्त्वपूर्ण भारतीय धार्मिक परम्परा की स्थिति को प्राप्त हो गया है । १२६ डॉ० हर्मन जेकोबी प्रभृति प्रकाण्ड प्राच्यविदों द्वारा बौद्ध एवं जैन अनुश्रुतियों के तुलनात्मक अध्ययन, परीक्षण एवं अन्वेषण द्वारा यह तथ्य सर्वथा प्रमाणित हो गया है कि जैन परम्परा के २४वें एवं अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर (ईसापूर्व ५६१-५२७) बौद्धधर्म प्रवर्तक शास्वपुत्र गौतमबुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन थे और वह प्राचीन जैनधर्म के मात्र पुनरुद्धारक थे, प्रर्वतक नहीं जैनधर्म उनके जन्म के बहुत पहले से प्रचलित था और बौद्ध धर्म की संरचना में भी उसका प्रभाव रहा । बौद्ध साहित्य में जैनधर्म की स्वतन्त्र सत्ता एवं आपेक्षिक प्राचीनता के अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं, कई पूर्ववर्ती तीर्थकरों के भी इंगित हैं। महावीर के पूर्ववर्ती २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (ई० पू० ८७७-७७७ ) की ऐतिहासिकता भी सभी आधुनिक प्राच्यविदों ने मान्य कर ली है। भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अनेक साधु महावीर के समय तक विद्यमान थे । अब महाभारत में वर्णित व्यक्तियों एवं घटनाओं की ऐतिहासिकता भी स्थूल रूप से मान्य की जाने लगी है - उसके प्रधान नायक नारायण कृष्ण की ऐतिहासिकता में सन्देह नहीं किया जाता। अतएव अनेक विद्वानों का मत है कि यदि कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति स्वीकार किया जाता है तो कोई कारण नहीं कि उन्हीं कृष्ण के ताउजात भाई, २२वें जैन तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) की ऐतिहासिकता को स्वीकार न किया जाय। भगवान् पार्श्वनाथ के प्रायः समकालीन मध्य एशिया के विल्दियन सम्राट नेबुचेडनजर के दानशासन प्रभृति कतिपय पुरातात्विक साक्ष्य भी तीर्थंकर नेमिनाथ की ऐतिहासिकता की पुष्टि करते हैं। २१ वें तीर्थंकर नमिनाथ का जन्म विदेहदेश की मिथिला नगरी में हुआ था और उनका एकत्व ब्राह्मणीय अनुभूति के विदेह जनकों के पूर्वज विदेहराज नाम से किया जाता है। कालान्तर में ब्रह्मवादी जनको द्वारा प्रेरित उपनिषदों की आत्मविद्या के मूल पुरस्कर्ता यह तीर्थकर नमि ही माने जाते हैं। अयोध्यापति मर्यादा पुरुषोत्तम राम का स्थान जैन परम्परा में अति सम्मानीय है, और उस युग के व्यक्तियों एवं घटनाओं का जो वर्णन जैन रामायणों में प्राप्त होता है वह ब्राह्मणीय पुराणों की अपेक्षा अधिक युक्तिसंगत एवं विश्सनीय है। उस समय २०वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का धर्मतीयं चल रहा था। ब्राह्मणीय पुराणों में जैनधर्म और जैनों के अनेक उल्लेख प्राप्त हैं जो जैन परम्परा की आपेक्षिक प्राचीनता सिद्ध करते हैं । भागवत आदि प्रायः सभी मुख्य पुराणों में भगवान् ऋषभदेव को विष्णु का अष्टम अवतार मान्य किया है और उनका सम्बन्ध जैनधर्म से सूचित किया है। ऋषभदेव जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर हैं । ब्राह्मण परम्परा के सर्वप्राचीन ग्रन्थ स्वयं वेद में — ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि में ऋषभादि कई तीर्थंकरों तथा निर्ग्रन्थ जैन मुनियों, यतियों, तपस्वियों के अनेक उल्लेख हैं । यह तथ्य जैन परम्परा को प्रावैदिक सिद्ध कर देता है । Jain Education International सिन्धुघाटी की प्राग्वैदिक एवं प्रागार्य सभ्यता के हड़प्पा में प्राप्त अवशेषों में दिगम्बर कायोत्सर्ग जिनमूर्ति का धड़ मिला है, और उसकी भी पूर्ववर्ती मोहनजोदड़ों के अवशेषों में प्राप्त मुद्राओं आदि से उस काल एवं उस प्रदेश में वृषभलांछन कायोत्सर्ग दिगम्बर योगिराज ऋषभ की उपासना के साक्ष्य मिले हैं। इस प्रकार सुदूर प्राग्वैदिक, प्रागार्य, प्रागैतिहासिक युग तक जैन परम्परा का अस्तित्व पहुँच जाता है, और ये संकेत इस धार्मिक परम्परा को सभ्यमानव की सर्वप्राचीन जीवित परम्परा सिद्ध कर देते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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