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________________ । १२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................. और अन्त में भी पंचनमस्कार की पद्धति प्रचलित थी। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार नंदी और अनुयोगद्वार को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार कर सूत्र का प्रारम्भ किया जाता है। संभव है इसीलिए अनेक आगम-सूत्रों के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र लिखने की पद्धति प्रचलित हुई। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उसी आधार पर नमस्कार महामन्त्र को सर्वश्रुतान्तर्गत बतलाया। उनके अनुसार पंचनमस्कार करने पर ही आचार्य सामायिक आदि आवश्यक और क्रमश: शेष श्रुत शिष्यों को पढ़ाते थे। प्रारम्भ में नमस्कार मन्त्र का पाठ देने और उसके बाद आवश्यक का पाठ देने की पद्धति थी। इस प्रकार अन्य सूत्रों के प्रारम्भ में भी नमस्कार मन्त्र का पाठ किया जाता था। इस दृष्टि से उसे सर्वश्रुताभ्यन्तर्वर्ती कहा गया। फिर भी नमस्कार मन्त्र को जैसे सामायिक का अंग बतलाया है वैसे किसी अन्य आगम का अंग नहीं बतलाया गया है। इस दृष्टि से नमस्कार महामन्त्र का मूलस्रोत सामायिक अध्ययन ही सिद्ध होता है। आवश्यक या सामायिक अध्ययन के कर्ता यदि गौतम गणधर को माना जाए तो पंचमंगल रूप नमस्कार महामन्त्र के कर्ता भी गौतम गणधर ही ठहरते हैं । नमस्कार महामन्त्र के पद ___ कुछ आचार्यों ने नमस्कार महामन्त्र को अनादि बतलाया है। यह श्रद्धा का अतिरेक ही प्रतीत होता है । तत्व या अर्थ की दृष्टि से कुछ भी अनादि हो सकता है। उस दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि है। किन्तु शब्द या भाषा की दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि नहीं है, फिर नमस्कार महामन्त्र अनादि कैसे हो सकता है ? हम इस बात को भूल जाते हैं कि जैन आचार्यों ने वेदों की अपौरुषेयता का इसी आधार पर निरसन किया था कि कोई भी शब्दमय ग्रन्थ अपौरुषेय नहीं हो सकता, अनादि नहीं हो सकता। जो वाङ्मय है वह मनुष्य के प्रयत्न से ही होता है और जो प्रयत्नजन्य होता है वह अनादि नहीं हो सकता। नमस्कार महामन्त्र वाङ्मय है। इसे हम यदि अनादि मानें तो वेदों के अपौरुषेयत्व और अनादित्व के निरसन का कोई अर्थ ही नहीं रहता। नमस्कार महामन्त्र जिस रूप में आज उपलब्ध है उसी रूप में भगवान महावीर के समय में या उनसे पूर्व पार्श्व आदि तीर्थंकरों के समय में उपलब्ध था या नहीं, इस पर निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी इस संभावना को इन्कार नहीं किया जा सकता कि भगवान महावीर के समय में 'नमो सिद्धाणं' यह पद प्रचलित रहा हो और फिर आवश्यक की रचना के समय उसके पाँच पद किये गये हों। भगवान् महावीर के समय में आचार्य और उपाध्याय की व्यवस्था नहीं मिलती। उसका विकास उनके निर्वाण के बाद हुआ है और बहुत संभव है कि 'नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं' ये पद उसी समय नमस्कार मन्त्र के साथ जुड़े हों। नमस्कार महामन्त्र के पदों को लेकर जो चर्चा प्रारम्भ हुई थी, उससे इस बात की सूचना मिलती है। चर्चा का एक पक्ष यह था कि नमस्कार महामन्त्र संक्षिप्त और विस्तार--दोनों दृष्टियों से ठीक नहीं है । यदि इसका संक्षिप्त हो तो णमो सिद्धाणं' ‘णमो लोए सव्वसाहूणं'--- ये दो ही पद होने चाहिए। यदि इसका विस्तृत रूप हो तो इसके अनेक पद होने चाहिए। जैसे-नमो केवलीण, नमो सुयकेवलीणं, नमो ओहिनाणीणं, नमो मणपज्जवनाणीणं, आदि-आदि । दूसरे पक्ष का चिन्तन यह था कि अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नियमत: साधु होते हैं, किन्तु जो साधु आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२६ : नंदिमणुओगदारं विहिवदुवग्धाइयं च नाऊणं । काऊण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स ॥ विशेषावश्यकभाष्य, गाथा : सो भव्वसुतक्खंधन्भन्तरभूतो जओ ततो तस्स । आवासपाणुयोगादिगहणगहितोऽणुयोगो वि॥ ३. विशेषावश्यकभाष्य,गाथा ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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