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________________ नमस्कार महामन्त्र : एक विश्लेषण ११६ ताडपत्रीय प्रतियों में यह उपलब्ध नहीं है और वृत्ति में भी व्याख्यात नहीं है। यह अष्टम अध्ययन होने के कारण इसमें मध्य मंगल भी नहीं हो सकता । इसलिए यह प्रक्षिप्त है।' प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में भी नमस्कार मन्त्र लिखा हुआ मिलता है, किन्तु हरिभद्रसूरि और मलयगिरिइन दोनों व्याख्याकारों के द्वारा यह व्याख्यात नहीं है। प्रज्ञापना के रचनाकार श्री श्यामार्य ने मंगल-वाक्यपूर्वक रचना का प्रारम्भ किया है। इससे ज्ञात होता है कि ई० पू० पहली शताब्दी के आस-पास आगम-रचना से पूर्व मंगल-वाक्य लिखने की पद्धति प्रचलित हो गई। प्रज्ञापनाकार का मंगल-वाक्य उनके द्वारा रचित है। इसे निबद्ध-मंगल कहा जाता है । दूसरों के द्वारा रचे हुए मंगल-वाक्य उद्धत करने को 'अनिबद्ध मंगल' कहा जाता है। प्रति-लेखकों ने अपने प्रति-लेखन में कहीं-कहीं अनिबद्ध-मंगल का प्रयोग किया है । इसीलिए मंगल-वाक्य लिखने की परम्परा का सही समय खोज निकालना कुछ जटिल हो गया। नमस्कार-महामन्त्र के पाठ-भेद नमस्कार मन्त्र का बहुप्रचलित पाठ यह है--णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवझायाणं, णमो लोएसव्वसाहूणं । प्राचीन ग्रन्थों में इसके अनेक पदों एवं वाक्यों के पाठान्तर गिलते हैंणमो--नमो अरहंताणं-अरिहंताणं, अरुहंताणं । आयरियाणं-आइरियाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं-णमो सन्य साहूणं । नमो अरहंतानं, नमो सव-सिधानं । प्राकृत में आदि में 'न' का 'ण' विकल्प होता है। इसलिए 'नमो' णमो' ये दोनों रूप मिलते हैं। प्राकृत में 'अहं,' धातु के दो रूप बनते हैं--अरहइ, अरिहइ । 'अरहताणं' और 'अरिहंताणं' ये दोनों 'अर्ह,' धातु के शतृ प्रत्ययान्त रूप हैं । 'अरहंत' और 'अरिहंत'--इन दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है। व्याख्याकारों ने 'अरिहंत' शब्द को संस्कृत की दृष्टि से देखकर उसमें अर्थभेद किया है। अरिहंत--शत्रु का हनन करने वाला। यह अर्थ शब्दसाम्य के कारण किया गया है । आवश्यकनियुक्ति में यह अर्थ उपलब्ध है। अर्हता का अर्थ इसके बाद किया गया २ . १. कल्पसूत्र (मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित), पृ०३ : कल्पसूत्रारम्भे नेतद् नमस्कारसूत्ररूपं सूत्रं भूम्ना प्राचीनतमेषु ताडपत्रीयादर्शषु दृश्यते, नापि टीकाकृदादिभिरेतदादृतं व्याख्यातं वा, तथा चास्य कल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कन्धसूत्रस्याष्टमाध्ययनत्वान्न मध्ये मंगलरूपत्वेनापि एतत्सूत्रं संगत मिति प्रक्षिप्तमेवैतद् सूत्रमिति । प्रज्ञापना, पद १, गाथा १: ववगयजरमरण भए सिद्ध अभिवंदिऊण तिविहेणं । वंदा मि जिणवरिदं, तेलोक्कगुरुं महावीरं ॥ ३. धवला, षट्खडागम १।१।१, पृ० ४२ : तं च मंगलं दृविहं, णिबद्धमणिबद्धमिदि । तथ्य णिबद्ध णाम, जो सुत्तस्मादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो, तं णिबद्धमंगलं । जो सुत्तस्मादीए सुत्तकत्तारेण ण णिबद्धो देवदाणमोकारो, तमणिबद्ध पंगलं । ४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६१६६२०: इंदियविसयकसाये परीसहे वेयणाओ उवसग्गे। एए अरिणो हंना, अरिहंता तेण बुच्चंति ।। अट्ठविहं वि अ कम्मं, अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरि हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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