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________________ हर विद्यार्थी भील पुत्र एकलव्य के जीवन को याद करे कि गुरु के समर्पण कैसा था, तथा विनय से उसने कितना ऊँचा स्थान प्राप्त किया था। कहा है कि सकता है और चरित्र है जीवन की गति सही दिशा मिल जाने पर भी गतिहीन मनुष्य इष्ट स्थान तक पहुँच नहीं पाता । सही दिशा और गति दोनों मिलें तब पूरा काम बनता है । चरित्रहीन विद्या विद्यार्थी के लिए वरदान नहीं बन पाती है पर आजकल कुछ और ही देखा जा रहा है। विद्या के लिए जो भरसक प्रयत्त हो रहा है उतना चरित्र के लिए नहीं हो रहा है । छात्र अध्यापक सम्बन्ध ७७ हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठै नहीं ठौर । कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को समझे और ॥ अतः गुरु के इंगित एवं अनुशासन पर चलने वाले छात्र का जीवन वैसे ही चमकता है, जैसे अग्नि में तपाया हुआ सोना । सोने को तपाते, पिघालते एवं कसौटी पर कसते हैं तब उसकी सच्चाई प्रकट होती है । उसी प्रकार जो बच्चे अपने पूज्यजनों की डाँट फटकार सुनकर भी विनम्र रहते हैं, वे अच्छे आदमी बन सकते हैं। एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा- "जाओ सामने जो काला नाग दिखाई दे रहा है उसे नाप कर आओ ।" शिष्य बिना हिचकिचाहट वहाँ गया और साँप के चले जाने पर उस स्थान को नाप कर आ गया । आचार्य ने दूसरी बार आदेश दिया - "जाओ उसके दाँत गिनकर आओ ।" आज्ञा सुनकर शिष्य को जरा भी भय नहीं हुआ कि सर्प मुझे काट लेगा । वह अत्यन्त सहजभाव से गया और साँप का मुँह पकड़कर दाँत गिनने लगा । सर्प ने दो बार उसके हाथ को काट लिया किन्तु वह दाँत गिनने में लगा रहा। दाँत गिनकर वह गुरु के पास पहुँचा । गुरु ने पूछा- दाँत गिनकर आये हो । शिष्य की स्वीकृति सुनकर गुरु ने पूछा- कहीं सर्प ने काटा तो नहीं ? शिष्य ने अपना हाथ दिखाते हुये कहा - यहाँ दो बार काटा है। आचार्य आश्वस्त होकर बोले--- भय की कोई बात नहीं है, जाओ कम्बल लपेटकर सो जाओ । थोड़ी देर बाद देखा गया कि कम्बल एक विशेष प्रकार के कीड़ों से भर गया है। कीड़ों को देखने से पता चला कि उसके शरीर में एक भयंकर रोग था उसका शमन सर्प के जहर से हो गया था। आचार्य ने अपने शिष्य को स्वस्थ बनाने के लिए प्रयोग किया था किन्तु इसका किसी को भी पता नहीं था, जब वह रहस्य खुला तो दूसरे शिष्य अपने साथी की अनुशासनप्रियता पर विस्मित हुए । Jain Education International प्रति उसकी श्रद्धा, विनय एवं कबीरदासजी ने कितना सुन्दर यहां पर शिष्य में शिष्यत्व था और गुरु में गुरुत्व । वस्तुतः अनुशासनहीनता विद्यार्थी के विकास में अवरोध बन जाती है। अनुवासनहीनता के कई कारण हैं कुछ कारण अध्यापकों एवं अभिभावकों से सम्बन्धित हैं, कुछ कारणों का सम्वन्ध विद्यार्थियों से है। अध्यापकों एवं अभिभावकों से सम्बन्धित कारण है-अधिक बुलार, अतिनियन्त्रण, उत्तरदायित्व का अधिकार कहने व करने में द्विरूपता एवं दूषित वातावरण बच्चों से सम्बन्धित कारण हैं— कुसंगति, शिकायत की आदत तथा अध्यापकों एवं अभिभावकों के प्रति अश्रद्धा । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कुछ और भी कारण हैं जिनका सम्बन्ध समय और स्थिति से है । कुछ भी हो, अनुशासनहीनता ने जीवन-निर्माण की दिशा में बहुत बड़ी क्षति की है, इस क्षति की पूर्ति के लिए सबको सजग होना है तथा अनुशासननिष्ठा का परिचय देना है। इसमें सफलता भी मिलेगी जब अध्यापक अपना कर्त्तव्य समझकर बच्चों में सुसंस्कार भरेंगे एवं विद्यार्थी विनय, श्रद्धा और समर्पण से विद्या के साथ मनन एवं आचरण करेंगे क्योंकि For Private & Personal Use Only विचार का चिराग बुझ जाने से आचार अन्धा हो जाता है । आचार का चिराग बुझ जाने से व्यवहार अन्धा हो जाता है । परिष्कार की मशीन जीवन के चौराहे पर फिट हो । क्योंकि व्यवहार का चिराग बुझ जाने से जीवन गंदा हो जाता है ॥ D 666 www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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