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________________ B+0+0+0+0+0+8+8 + +0+0+0+ अभिभावकों का दायित्व साध्वी श्री जयमाला, नोहर ( युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) किसी कवि ने ठीक ही कहा है रहन-सहन सादा रखें, आवश्यक दो बात हैं, धन व्यय करें न व्यर्थ । सुखमय जीवन अर्थ | जीवनरूपी उपवन को सरसब्ज बनाने के लिये अहर्निश प्रयत्न किये जा रहे हैं। नाना प्रकार के प्रयोग अपनाये जा रहे हैं, किन्तु आनन्द की अनुभूति फिर भी कोसों दूर भागती हुई नजर आ रही है । कारण स्पष्ट है जीवन पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं और रात-दिन अर्थार्जन के लिये दौड़-धूप उन्हें ख्याल तक नहीं कि हमारी सन्तान किस ओर जा रही है । नियन्त्रण के अभाव में व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों तरफ से व्यक्ति निस्तेज बनता जा रहा है । वस्तुतः अनियन्त्रित जीवन किसी काम का नहीं होता। जब तक अर्थार्जन पर ब्रेक नहीं लगाया जायेगा और परिवार की तरफ ध्यान नहीं दिया जायेगा तो इससे अनेक प्रकार की बुराइयाँ बच्चों पर हावी हो जायेगी, असद् आचरणों में पड़कर सन्तान कुपथगामी बन सकती है। परिणामस्वरूप भविष्य गहन अन्धकार में प्रविष्ट हो जायेगा, पारिवारिक जीवन भी अस्त-व्यस्त हो जायेगा, सही दिशा न मिलने के कारण बच्चे आवारा भी बन सकते हैं । Jain Education International अस्तु, पारिवारिक जीवन सुसंस्कारी बनाने के लिये पहले स्वयं स्वस्थ बनें, सत्संस्कारों का विकास करें, क्योंकि सारा का सारा उत्तरदायित्व अभिभावकों पर होता है। यदि माता-पिता स्वयं सजग, सक्षम, योग्यतासम्पन्न होंगे तब ही अपनी दूरदशिता एवं विशिष्ट योग्यता के कारण बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बना सकते हैं। नई-नई उपलब्धियों के द्वार खोले जा सकते हैं। आवश्यक है अभिभावकों को दायित्व निर्वाह से पहले दायित्व बोध होना । दिशाबोध के अभाव में पारिवारिक एवं सामाजिक जीवनस्तर श्रेष्ठ बना नहीं सकते। सर्वप्रथम शिक्षा देने से पहले अभिभावकगण अपने जीवन को टटोलें । स्वयं यदि सही दिशा में चल रहे हैं, तो दूसरों पर भी अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ सकते हैं। दिशाबोध के लिये निम्नोक्त स्वर्णसूत्र आवश्यक है- ( १ ) जैसे पहला सूत्र है जीवन चरित्र-निष्ठ हो, (२) व्यसनों से सर्वथा मुक्त हो, (३) स्वावलम्बी हो, (४) अप्रमादी हो, (५) धर्म के प्रति आस्थावान् हो, (६) प्रामाणिक एवं नैतिक हो, (७) निराशा के भाव न हो, यानी साहसहीन न हो। इन्हीं सूत्रों के माध्यम से परिवार एवं समाज को प्रगति पथ पर अग्रसर कर सकते हैं। प्रत्येक माता-पिता की स्वाभाविक कामना होती है कि हमारी सन्तान सुशील तथा सुसंस्कारी बने । किन्तु इच्छा मात्र से कुछ नहीं होता। यदि इरादों से ही सब कुछ बन जाता तो परिश्रम करने की जरूरत ही नहीं रहती । किसी शायर ने ठीक कहा है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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