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________________ मेवाड़ के जैन वीर 0 श्री शम्भूसिंह "मधु" ४ सीताफल गली, गणेशघाटी, उदयपुर (राज.) जिस प्रकार ज्ञान, भक्ति, कला, साहित्य, विज्ञानादि प्रभृति प्रतिभा-गुण किसी देश, समाज, जाति, रक्त, वर्ण व व्यक्ति की धरोहर नहीं है, उसी प्रकार वीरता भी मनुष्य का सहज धर्म है, जो समय-समय पर धरती के सभी स्थानों और मानव के सभी कुल-समुदायों में अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय देता रहा है । युगयुगीन मानव और अनन्त काल-धारा का जब से परिचय हुआ तब से पता नहीं किन-किन मनुष्यों ने कब-कब कैसी-कैसी अद्भुत वीरता का परिचय दिया ? सभ्य समाजों का अपने द्वारा संकलित इतिहास तो बहुत बाद का, बहुत छोटा दस्तावेज है। आज का सभ्य मनुष्य जो कल मात्र आदिमानव था, कैसे-कैसे विकराल जानवरों की हिंसा को अपनी वीरता से पार कर सभ्यता के पहले पड़ाव तक पहुँचा है। अपने अस्तित्व को बचाये रहने की बलवती भावना ही तब उसकी वीरता थी। मेवाड़ वीरभूमि है और जैन-धर्म वीरधर्म। यहाँ दोनों का जैसा मणिकांचन संयोग हुआ वैसा अन्यत्र शायद कम हुआ होगा । अहिंसा पर आधारित जैन धर्म वस्तुत: क्षत्रिय धर्म है । वैदिक धर्म के प्रथम पूर्ण मानव अवतार और जैन धर्म के आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने 'विश्व-मानव' के लिए 'असि, मसि, कृषि' कर्म की जो व्यवस्था आरम्भ व स्थापित की, उसमें 'असि' अर्थात् तलवार राज्य व सुरक्षा की प्रतीक है। जैन-धर्म के 'कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा जैसे आदि सिद्धान्त-वाक्य मनुष्य के ओज को इंगित करते हैं । ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर और भावी तीर्थकर पद्मनाभ आदि सभी का क्षत्रिय कुलोत्पन्न होना आदि जैनधर्म के वीर धर्म होने के पूर्ण प्रमाण है। इससे अधिक किसी धर्म में वीरता की स्वीकृति व पुष्टि नहीं मिलेगी। जैन धर्म की पौराणिक साहित्य में अनेक महत्त्वपूर्ण जैन वीरों द्वारा युद्धों के माध्यम से राज्यों की स्थापना करना, राज्यों को जीतने व राज्यों की रक्षा करने के उल्लेख मिलते हैं। किन्तु मेवाड़ में जैन वीरों द्वारा राज्य भार ग्रहण करने हेतु नहीं अपितु लोक-स्वतन्त्रता व लोक-जीवन की रक्षा हेतु युद्ध करने, युद्धों में सहयोग करने के अनेक उदाहरण व प्रमाण मिलते हैं । यद्यपि इन युद्धों में जैन वीरों की प्रथम भूमिका नहीं है, किन्तु निस्सन्देह प्रथम से अधिक महत्त्वपूर्ण व प्रशंसनीय भूमिका है। मेवाड़ के कतिपय जैन वीर तो ऐसे हए हैं, जिन्होंने अपने वीरता, बल, बुद्धि-कौशल और धन-वैभव से क्षत्रियों के समान ही मेवाड़ की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव की रक्षा की है। जाल मेहता-मेवाड़ के जैन वीरों में शोध के बाद प्रथम ज्ञात नाम जाल मेहता का आता है। जाल मेहता जालोर के शासक मालदेव चौहान के दीवान थे तथा जब मालदेव मुगल शासकों की सेवा में दिल्ली जाते, अथवा युद्ध अभियानों में भाग लेते अथवा मुगल शासक उनका कूटनीतिक कार्यों में अन्यत्र उपयोग करते तब जालोर का सारा शासन और प्रशासन जाल मेहता ही सम्भालते। इस प्रकार मालदेव चौहान अपने दीवान जाल मेहता की योग्यता पर पूर्णत: निर्भर एवं आश्वस्त थे। ___अलाउद्दीन खिलजी ने जब मेवाड़ राज्य की प्रथम ऐतिहासिक राजधानी चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया तब मेवाड़ के प्रथम राजवंश के रावल शासकों ने दुर्ग की रक्षा में वीरतापूर्वक अपनी सम्पूर्णाहुति दे दी। इतनी कठिनाई से -० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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