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________________ Jain Education International १०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड +++ ❤ बगशीश के रूप में सं० १९२४ का चातुर्मास जोधपुर करवाया। भण्डारीजी ने समय-समय पर शासन को बहुत सेवाएँ दीं । वे सब इतिहास में अंकित रहेंगी । ७० वर्ष की उम्र में इनका देहावसान हुआ । मघवागणी का चातुर्मास उस समय जोधपुर में था । (१०) श्री दुलीचंदजी दूगड़ - श्री दुलीचंदजी लाडनूं निवासी थे । इन्होंने तीसरे आचार्य श्री ऋषिराय से लेकर कालूगणी तक छः आचार्यों की सेवा की थी। धर्म के प्रति इनकी आस्था अद्वितीय थी। शासन को विपत्ति भरे अवसरों पर दुलजी ने प्राणों को हथेली पर रखकर जो सेवाएं दीं वे सदा गौरव से याद की जायेंगी। मुनिपतजी स्वामी के दीक्षा प्रसंग को लेकर जोधपुरनरेश ने जयाचार्य को गिरफ्तार करने का आदेश निकाल दिया था। लाउनु जब खबर मिली तब दुलजी ने जयाचार्य को निवेदन किया आप मेरी हवेली में पधार जायें। अपने आचार्य की सुरक्षा के लिए श्रावकों ने यह उचित समझा कि पुराना स्थान छोड़ दिया जावे। जयाचार्य के मन में भय नहीं था । पर दुलजी व अन्य श्रावकों का आग्रह देखकर जयाचार्य वहाँ पधारे। दुलजी ने निवेदन किया हम कुछ श्रावक यहाँ द्वार पर पहरा देंगे हमारे जीवित रहते कोई भी आपको गिरफ्तार नहीं कर सकेगा । यो प्राणों की बलि देने तक उनकी तैयारी थी । यद्यपि भण्डारी की दक्षता से वह आदेश रद्द कर दिया गया फिर भी उनका वह साहस सदा दूसरों को प्रेरणा देता रहेगा । दुलजी आचार्यों के अत्यन्त कृपा-पात्र श्रावक थे। सभी आचार्य इनकी बात को बहुत आदर से सुनते थे । इनके आग्रह पर आचार्यों को कई बार अपना निर्णय बदलना पड़ता था। इनके जीवन की और भी घटनाएँ हैं किन्तु विस्तारभय से सबका उल्लेख होना संभव नहीं है। 1 (११) श्रीमानजी मंथा - ये जसोल के निवासी थे । स्वामी भीखणजी के प्रति इनके मन में बेजोड़ श्रद्धा थी । अपने श्रद्धाबल से इन्होंने हर कठिनाई को दूर किया। एक बार एक काले साँप ने उनको डस लिया । काला साँप अपेक्षाकृत अधिक विष वाला होता है। लोगों ने तत्काल उपचार कराने का परामर्श दिया या किसी मन्त्रवादी को बुलाकर विष प्रभाव को दूर करने के लिए कहा। किन्तु मानजी ने कहा- मेरी औषध तो स्वामीजी का नाम है। उन्होंने एक धागा मँगवाया, स्वामी जी के नाम से मन्त्रित किया और साँप के काटे हुए स्थान के पास बाँध दिया । बाद में झाड़ा लगाते हुए बोले- “भिक्षु, बाबो भलो करेगा, नाम मन्त्र का काम करेगा ।" थोड़ी ही देर बाद विप का संभावित प्रभाव शान्त हो गया । उनको ऐसी प्राणवान् श्रद्धा को देखकर सबको आश्चर्य हुआ । इस घटना के कई वर्ष बाद तक जीवित रहे । मानजी शासन की मर्यादाओं के अच्छे जानकार थे। कहीं भी किसी साधु में मर्यादा के प्रति उपेक्षाभाव देखते उन्हें विनम्रतापूर्वक निवेदन करते वे धर्मसंघ के हितगधी थे। ! For Private & Personal Use Only थली के प्रमुख श्रावक (१२) श्री जेठमलजी गधेया- सरदारशहर के गधैया परिवार में तेरापंथ की श्रद्धा जेठमलजी से ही प्रारम्भ भाइयों पर संघ से निकले हुए छोगजी चतुर्भुजजी का श्रद्धा पैदा हुई । जेठमलजी टालोकरों के कट्टर भक्त हुई । उस समय सरदारशहर बहिनों का क्षेत्र कहलाता था। प्रभाव था। मुनि कालूजी के प्रयासों से भाइयों में तेरापंथ की बन गये थे । उन्होंने अन्य सन्तों के पास जाना तो दूर वन्दना तक का त्याग ले रखा था। एक बार रास्ते में ही कालूजी स्वामी के सहवर्ती मुनि छबिलाजी ने उनसे बात की फिर कालूजी स्वामी से ठीकाने के बाहर ही बातचीत की। उनकी शंकाएं दूर हुई और जयाचार्य को गुरु रूप में उन्होंने धारण कर लिया। गधैयाजी के तेरापंथ की श्रद्धा स्वीकार कर लेने के बाद अनेकों भाइयों ने सही मार्ग को अपनाया। गधेयाजी सरदारशहर के प्रमुख व्यक्तियों में थे अतः उनका अनुकरण दूसरे लोग करें यह स्वाभाविक ही था । अपने पुत्र श्रीचन्दजी जो उस समय कलकत्ता थे उनको पत्र लिखकर अपनी धार्मिक मान्यता व तेरापंथ की श्रद्धा के बारे में बता दिया और उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया। उन्होंने भी जयाचार्य को गुरु रूप में स्वीकार कर लिया । इनका जीवन वैराग्यमय था । चालीस वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने पूर्ण ब्रह्मचर्यं स्वीकार कर लिया था। खान-पान और रहन-सहन में भी काफी संयम रखते थे । प्रारम्भ में इनकी आर्थिक अवस्था सामान्य थी। खेती का धन्धा किया करते थे । जेठमलजी कुछ नया व्यापार करना चाहते थे । www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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