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________________ आशीर्वचन समाज और धर्मशासन की सेवा में अग्रणी रहकर तुल्य हैं एवं पिता के समान संरक्षक हैं। राणावास में अपने जीवन को लगाया, तपाया और खपाया है । गुरु- प्रायः उनके निजी आवास में ही साधु-साध्वियों का प्रवास दृष्टि और गुरुभक्ति की आराधना में अपने को समर्पित होता है । साधु-साध्वियों के प्रति सहज भक्ति एवं बहुमान किया है । आप शासन और शासनपति के प्रति पूर्ण श्रद्धा- की भावना है । साधु-साध्वियों को देखकर तत्काल आसन नत हैं । आराध्यदेव के हृदय में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान से उठकर अभिवादन करते हैं और प्रतिदिन साधु-साध्वियों है । जो भक्त अपने भगवान के हृदय में अपना स्थान बनाले, से पूछताछ करते हैं-"बापजी, गोचरी हो गई ? आहार यह बहुत ही गौरव का विषय है। पूरा आया या नहीं ?" उत्कट भावनाओं से दान देते हैं । इनकी कर्मभूमि, भावभूमि और मनोभूमि को आगम की भाषा में जिसे 'अडलक' दान कहा है। स्वयं के पढ़ने से लगा कि ये साधनाक्षत्र में सतत जागरूक हैं एवं खाद्य एवं पेय पदार्थों में ऊनोदरी कर बहुत ही विवेक एवं गतिशील हैं। "सजमायम्मि रओ सया" सदा स्वाध्याय में उपयोगपूर्वक कल्पनीय दान देने में श्रीमती सुन्दरदेवी और लीन रहते हैं। स्वाध्याय इनके जीवन का टॉनिक है। श्री केसरीमलजी दोनों ही बहुत आह्लादित व उत्फुल्ल जब कभी देखते हैं, माला हाथ में ही रहती है। लगभग होते हैं । साधु-साध्वियों के बहुत ही गुणगान करते हैं। एक मास में तीन लाख साठ हजार जप (स्वाध्याय) हो प्रायः मुख से निकलता है-'धन्य है आपको, हमारे पर जाती हैं । मानो स्वाध्याय यज्ञ में अपना जीवन आहूत कर भारी कृपा की, दिन भर सारा अव्रत में जाता है थोड़ी सी दिया। सैकड़ों स्तवन कण्ठस्थ हैं । आप स्वाध्याय के बड़े ही वस्तु सन्तों के पात्र में पड़ती है, बस वही व्रत में आती रसिक हैं। सचमुच ही आप एक धर्मनिष्ठ, आत्मनिष्ठ, है। इसमें ही जीवन की सार्थकता है।' इन दोनों की संघनिष्ठ श्रावक हैं। इनकी दैनिक चर्या अन्य श्रावकों के सेवाभावना और उत्कट परिणामों से दान देने की भावना लिए दिशाबोध देने वाली है। / को देखकर प्राचीन श्रावकों का इतिहास मुखरित हो जाता इन्होंने स्वयं को आत्म-उपासना में लगा रखा है। हैं। आध्यात्मिक यात्रा में श्रीमती सुन्दरदेवी का महान त्याग के प्रति सहज सजगता है। व्यवहारकुशल किन्तु पाप- सहयोग मिलता है । दाम्पत्य जीवन में ऐसा आध्यात्मिक भीरू हैं। उनका जीवन समता-रस में धुला-मिला है, भाव दुर्लभ है। श्रीमती सुन्दरदेवी पति के प्रति पूर्ण ओजस्वी है, मृदु है, गम्भीर है और 'सत्यं, शिवं, सुन्दर' समर्पित और श्रद्धानत हैं। का प्रतीक है । तेज होकर तितिक्षु हैं, कठोर होकर सरल आपका दिमाग बड़ा उर्वर है। स्मरण शक्ति विलक्षण हैं, प्राचीन होकर नवीन हैं । अकड़ना भी आता है तो ढलना है। कार्य करने की क्षमता अद्भुत है । जिस किसी कार्य भी आता है। अधिकारी होने के नाते गलती पर कहना को अपने हाथ में लिया, चाहे धार्मिक तथा सामाजिक, पड़ता है किन्तु तत्काल क्षमायाचना कर लेते हैं। बहुत ही सभी कार्यों को बहुत ही आत्मबल एवं दृढ़निष्ठा से करने ऋजु हैं, स्नेहिल हैं। ठाणांग सूत्र में श्रावकों के चार में शत-प्रतिशत सफल रहे हैं । विघ्न-बाधाओं के अनेक प्रकारों का वर्णन उपलब्ध होता है-चत्तारि समणोवासगा तूफान आने पर भी निश्चल होकर अपने लक्ष्य की ओर पण्णता तं जहा--अम्मपि समाणे, भाई समाणे, मित्त समाणे आगे बढ़ते रहे । आत्मविश्वासी बड़ी से बड़ी कठिनाइयाँ सवति समाणे। पार कर जाते हैं। सचमुच ऐसे श्रावकों पर समाज को __इन चार कोटि के श्रावकों में श्रावक केसरीमलजी नाज है। प्रथम कोटि के श्रावक हैं । साधु-साध्वियों के लिए पिता 0 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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