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________________ गोड़वाड़ के जैन शिलालेख ४५ - . -. -. - . -. -. -. -. -. -. नाडलाई ___ नाडलाई में कई प्राचीन मन्दिर हैं । ऐसी मान्यता है कि संडेरकगच्छ ने यशोभद्रसूरि यहाँ १०वीं शताब्दी में पधारे थे तब से यह क्षेत्र संडेरकगच्छ का बड़ा केन्द्र रहा है। यहाँ के आदिनाथ मन्दिर में वि० सं० ११८६, ११६५, १२००, १२०२ के महाराजा रायपाल के राज्य के लेख हैं। वि० सं० १२०० का एक अन्य लेख इसी ग्राम के एक अन्य मन्दिर से इसी राजा का और मिला है। इन लेखों में उसने गुजरात के चालुक्य राजा को अपना स्वामी होने का उल्लेख नहीं किया जो विशेष उल्लेखनीय है । वि० सं ११८६ के लेख में रामपाल की राणी मीनलदेवी और उसके पुत्रों द्वारा दान देने का उल्लेख है। वि० सं० ११९४ का लेख काफी लम्बा है। इसमें गुहिलोत ठाकुर उद्धरण के पुत्र राजदेव द्वारा अपनी स्थानीय आय, जो बणजारों से प्राप्त होती थी, में से आधा भाग जैन मन्दिर के लिये दिया । वि० सं० १२०० के लेख में रथयात्रा की व्यवस्था के लिये दान देने की व्यवस्था है । इसी तिथि के अन्य लेख में महावीर मन्दिर की पूजा के निमित्त समस्त महाजनों द्वारा दान देने की व्यवस्था है । वि० सं० १२०२ का लेख वणजारों द्वारा अलग से दान की व्यवस्था का है। इसमें देशी एवं बाहर के आये दोनों प्रकार के बणजारों का उल्लेख है (अभिनव पुरीय बदार्या अत्रत्यषु समस्तबणजारकेषु देशी मिलित्वा) । वि० सं० १२१५ का लेख मेडलोक प्रतापसिंह से सम्बन्धित है । यह स्थानीय शासक था। इसने नाडलाई के जैन मन्दिर के लिये दान दिया। इस लेख में विशेष रुचिकर बात यह है कि यह दान समस्त महाजन, ब्राह्मण एवं भट्टारकों की सहमति से बदार्या की मंडपिका से दिया गया था (बदार्या मंडपिका मध्यात् समस्त महाजन भट्टारक ब्राह्मगादय प्रमुखं प्रदत्त)। ब्राह्मण एवं भट्टारक जो सम्भवतः शैव मन्दिरों के आचार्य थे द्वारा भी इस प्रकार के दान में सहमति देना उल्लेखनीय था। पुरातन प्रबन्ध संग्रह में रावलाषण से सम्बन्धित प्रबन्ध में इसकी वश्यकुल की पत्नी द्वारा उत्पन्न पुत्र को भण्डारी गोत्र दिया गया था। वि० सं० १५५७ एवं १६७४ के नाडलाई के मन्दिरों के लेखों में भण्डारी सामर के परिवार का विस्तार से उल्लेख है। वि० सं० १५५७ का लेख मेवाड़ के इतिहास में उल्लेखनीय है । यह पहला लेख है जिसमें महाराजकुमार पृथ्वीराज (रायमल के पुत्र) के गोडवाड पर शासन करने का उल्लेख किया गया है । इसी लेख में 'श्री उकेशवंशे राय भंडारी गोत्रे राउल लाषण पुत्र भं० दुदु वंशे' शब्द होने से पुरातन प्रबन्ध संग्रह की उक्त बात की पुष्टि होती है । इस लेख में मन्दिर में देववुलिका बनाने का उल्लेख है । दूसरा लेख वि० सं० १६७४ (१६१८ ए.डी.) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । जहाँगीर के शासनकाल में यह क्षेत्र गजनीखाँ जालोरी के आधीन थोड़े समय तक रहा था जिसने राणकपुर सहित सब मन्दिरों में तोड़-फोड़ की थी। १६१५ ई० में सन्धि हो जाने के बाद जब मन्दिरों का जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ किया तब सबसे पहले नाडलाई’ का जीर्णोद्धार पूरा होकर वि० सं० १६७४ (१६१८ ई०) में तपागच्छ के विजयदेव सूरि से प्रतिष्ठा कराई गई थी। यहाँ के अन्य मन्दिर का जीर्णोद्धार वि० सं० १६८६ में किया गया। राणकपुर का जीर्णोद्वार १६२१ ई० में पूर्ण हुआ था। १. श्मशान के पास एक प्राचीन स्तूप पर 'सूरि यशोभद्राचार्यादि' शब्द है (जैन तीर्थसर्व संग्रह, भाग १, खण्ड II, पृ० २२३. २. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख, सं० ३३१, ३३२, ३३, ३४. ३. दशरथ शर्मा-अरली चौहान डाडनेस्टीज, पृ० १३१. ४. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख सं० ३३२. ५. गुजरातना ऐतिहासिक लेखा III सं० १४८. ६. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह २३७ एवं ३४१. ७. वही, सं० ३४१. ८. जैन सर्वतीर्थ संग्रह, भाग I, खण्ड II पृ० २२४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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