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________________ • ४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ..-.- -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. समाज के नर-रत्न 0 युवाचार्य महाप्रज्ञ केसरीमलजी सुराणा का जीवन एक विशाल ग्रन्थ है समर्पण के भाव समाज के प्रत्येक श्रावक के लिए अनुऔर वह ग्रन्थ है जिसका हर पृष्ठ प्रेरणा का पृष्ठ है। करणीय हैं। आपने जिस साहस और लगन-निष्ठा से वैयक्तिक साधना के उत्कर्ष पर चलने वाला व्यक्ति समाज राणावास में शिक्षा का कल्पवृक्ष खड़ा किया है, वह के लिए कितना योग दे सकता है, उसका यह एक आपके जीवन्त व्यक्तित्व का अनूठा प्रतीक है। सुराणाजी उदाहरण है। के व्यक्तित्व को देखकर कोई यह कल्पना भी नहीं कर श्री सुराणाजी समाज के उन नर-रत्नों में से हैं सकता कि इस व्यक्ति की मेधा इतनी उर्वर होगी और जिन्होंने अपने जीवन का उत्कृष्ट समय समाज के विकास यह समाज गौरव की अभिवृद्धि करने वाला इतना विशाल एवं संवर्द्धन में समर्पित किया है । नैतिक और सांसारिक शिक्षा केन्द्र स्थापित कर देगा। समाज में सुराणाजी जैसे शिक्षा के प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में आपकी अमूल्य सेवायें चार-पांच व्यक्ति और हों तो समाज के कायाकल्प को तेरापंथ जगत में सदा स्वर्णाक्षरों में लिखी जायेंगी। कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता। साधु-सी वेशभूषा, सरल प्रकृति और संघ व संघपति के प्रति • धर्म और कर्म के युगपत् उपासक 0 साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभा संस्कार एक प्रवाह है । वह बहता रहता है। व्यक्ति समर्पित करते हैं, वे स्वयं ही उभरकर युग के सामने उस बहाव के साथ गुजर जाता है। पीछे क्या कुछ बचता आ जाते हैं। 'काकासा' के नाम से श्री केसरीमलजी है ? यह देखने का काम भावी पीढ़ी करती है। वर्तमान में सुराणा एक ऐसे ही श्रावक हैं, जिन्होंने धर्म व कर्म की किसी भी व्यक्ति के कर्तृत्व का अंकन बहुत कम होता युगपत् उपासना की है। कुछ व्यक्ति धार्मिक क्षेत्र में गति है। किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो अपने चिन्तन व करते हैं, उनका कार्यक्षेत्र सीमित हो जाता है। वे अपने कर्म से वर्तमान पर भी हावी हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों आपको केन्द्र मानकर चलते हैं। उनकी परिधि में जितना को बीहड़ मार्ग से गुजरना पड़ता है। कुछ आ जाए, वही पर्याप्त होता है। दो राही एक ही दिशा की ओर गतिशील हुए। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति कर्म को अपने जीवन का उनका लक्ष्य भी एक ही था। एक राही ने बनी-बनाई प्रमुख अंग मानते हैं। सोते-जागते, खाते-पीते उनके पगडंडी पर चलना शुरू किया व दूसरा व्यक्ति ऊबड़- मस्तिष्क में कर्म के संस्कार परिक्रमा करते रहते हैं। खाबड़, कांटों भरे बीहड़-पथ पर चलने लगा। दोनों कर्म करने में उन्हें सुख मिलता है, पर धर्म उनके जीवन व्यक्ति मंजिल पर आ गये । एक व्यक्ति मुस्करा रहा था से छूट जाता है । धर्म व कर्म का अद्भुत सामंजस्य जिस व दूसरा काँटों की चुभन से कराह रहा था । कराहने व्यक्ति के जीवन में होता है, वह कितना विलक्षण होता वाले ने पीछे लौटकर देखा, उसके छोड़े हुए पदचिह्नों है ? शब्दों से व्यक्त नहीं हो सकता। पर एक विशाल जन-समूह जय-जयकार करता हुआ बढ़ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में केसरीमल रहा था और जब पहले ने देखा, उसका बना-बनाया पथ जी सराणा 'श्रावक समाज के रूप हैं।' कितने सौभाग्यनीरव तथा निर्जन था। पहले व्यक्ति की मुस्कान कहीं शाली होते हैं वे व्यक्ति, जिनके लिए गुरु के मुखारविन्द खो गई, पर दूसरे व्यक्ति की पीड़ा युग-चेतना में प्रति- से ऐसे शब्द निकलते हैं। सचमुच ही सुराणाजी ने अपने बिम्बित हो गई। जीवन की उस रूप में प्रस्तुति दी है। उनकी धार्मिकता जो व्यक्ति युग की पीड़ा को समझते हैं, युग की अपेक्षा की पहचान रूढ़ता नहीं है, कोरे क्रियाकाण्ड नहीं हैं, को समझते हैं, और उसकी पूर्ति के लिए अपना जीवन जागृत जीवन है। धर्माराधना के छोटे-छोटे प्रयोगों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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